क़ाफ़िया (Qafiya)
ग़ज़ल के हर शेर के दूसरे मिसरे में रदीफ़ से ठीक पहले आने वाले वो शब्द जो एक ही आवाज़ पर ख़त्म होते हैं, उन्हें क़ाफ़िया (Qafiya) कहते हैं.मत’ला में क़ाफ़िया दोनों मिसरों में इस्तेमाल होता है जबकि बाक़ी शे’रों में ये सिर्फ़ मिसरा-ए-सानी में आता है.
समझने के लिए ज़हरा निगाह की इस ग़ज़ल को देखें. इस ग़ज़ल में “हैं” रदीफ़ है, उसके पहले वाले लफ़्ज़ की आवाज़ पर ग़ौर करें..
इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
आने वाले बरसों ब’अद भी आते हैं
हमने जिस रस्ते पर उसको छोड़ा है
फूल अभी तक उस पर खिलते जाते हैं
देखते-देखते इक घर के रहने वाले
अपने अपने ख़ानों में बट जाते हैं
देखो तो लगता है जैसे देखा था
सोचो तो फिर नाम नहीं याद आते हैं
कैसी अच्छी बात है ‘ज़हरा’ तेरा नाम
बच्चे अपने बच्चों को बतलाते हैं
(ज़हरा निगाह)