(हिंदी की पहली कहानी कौन-सी है? इस सवाल पर अलग-अलग जानकारों के अलग-अलग मत हैं..और उन मतों के अनुसार ही कुछ कहानियों को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है। कुछ दिनों से आप “घनी कहानी छोटी शाखा” में पढ़ रहे हैं, ऐसी ही कुछ कहानियों को, जो मानी जाती हैं हिंदी की पहली कहानियों में से एक..इन दिनों आप पढ़ रहे हैं “राधिकारमण प्रसाद सिंह” की लिखी कहानी “कानों में कँगना”..आज पढ़िए दूसरा भाग) Kaanon mein kangana
(अब तक आपने पढ़ा..किरन से रोज़ भेंट होने के बाद भी कहानी के नायक के मन में उसके लिए प्रेम का वो भाव नहीं उपजा था जो किरन को कानों में कँगना डाले देख उमड़ आया था। नन्दनोपवन में रहती किरन इतनी भोली और मासूम थी कि उसे ये भी पता नहीं था कि कँगन कानों में नहीं बल्कि कलाइयों में पहनने का आभूषण है। उसकी प्रकृति-सी सौम्यता और भोलापन नायक के हृदय में अपनी छाप छोड़ गया था। उस घटना को मरते दम तक न भूलने की बात कहता हुआ नायक, इस सोच को भी मन में लाता है कि कितने दिनों तक प्रकृति की ये सादगी बची रहेगी। आख़िर कितने दिनों तक लोक में ये अलौकिक बातें बच पाएँगी? अब आगे…)
हृषीकेश के पास एक सुन्दर वन है; सुन्दर नहीं अपरूप सुन्दर है। वह प्रमोदवन के विलास-निकुंजों जैसा सुन्दर नहीं, वरंच चित्रकूट या पंचवटी की महिमा से मण्डित है। वहाँ चिकनी चाँदनी में बैठकर कनक घुँघरू की इच्छा नहीं होती, वरंच प्राणों में एक ऐसी आवेश-धारा उठती है, जो कभी अनन्त साधना के कूल पर पहुँचाती है – कभी जीव-जगत के एक-एक तत्व से दौड़ मिलती है। गंगा की अनन्त गरिमा – वन की निविड़ योग निद्रा वहीं दिख पड़ेगी। कौन कहे, वहाँ जाकर यह चंचल चित्त क्या चाहता है – गम्भीर अलौकिक आनन्द या शान्त सुन्दर मरण।
इसी वन में एक कुटी बनाकर योगीश्वर रहते थे। योगीश्वर योगीश्वर ही थे। यद्यपि वह भूतल ही पर रहते थे, तथापि उन्हें इस लोग का जीव कहना यथार्थ नहीं था। उनकी चित्तवृत्ति सरस्वती के श्रीचरणों में थी या ब्रह्मलोक की अनन्त शान्ति में लिपटी थी। और वह बालिका – स्वर्ग से एक रश्मि उतरकर उस घने जंगल में उजेला करती फिरती थी। वह लौकिक मायाबद्ध जीवन नहीं था। इसे बन्धन-रहित बाधाहीन नाचती किरनों की लेखा कहिए – मानो निर्मुक्त चंचल मलय वायु, फूल-फूल पर, डाली-डाली पर डोलती फिरती हो या कोई मूर्तिमान अमर संगीत बेरोकटोक हवा पर या जल की तरंग-भंग पर नाच रहा हो। मैं ही वहाँ इस लोक का प्रतिनिधि था। मैं ही उन्हें उनकी अलौकिक स्थिति से इस जटिल मर्त्य-राज्य में खींच लाता था। ~ Kaanon mein kangana
कुछ साल से मैं योगीश्वर के यहाँ आता-जाता था। पिता की आज्ञा थी कि उनके यहाँ जाकर अपने धर्म के सब ग्रन्थ पढ़ डालो। योगीश्वर और बाबा लड़कपन के साथी थे। इसीलिए उनकी मुझ पर इतनी दया थी। किरन उनकी लड़की थी। उस कुटीर में एक वही दीपक थी। जिस दिन की घटना मैं लिख आया हूँ, उसी दिन सबेरे मेरे अध्ययन की पूर्णाहुति थी और बाबा के कहने पर एक जोड़ा पीताम्बर, पाँच स्वर्णमुद्राएँ तथा किरन के लिए दो कनक-कँगन आचार्य के निकट ले गया था। योगीश्वर ने सब लौटा दिये, केवल कँगन को किरन उठा ले गई। ~ Kaanon mein kangana
वह क्या समझकर चुप रह गए। समय का अद्भुत चक्र है। जिस दिन मैंने धर्मग्रन्थ से मुँह मोड़ा, उसी दिन कामदेव ने वहाँ जाकर उनकी किताब का पहला सफा उलटा।
दूसरे दिन मैं योगीश्वर से मिलने गया। वह किरन को पास बिठाकर न जाने क्या पढ़ा रहे थे। उनकी आँखें गम्भीर थीं। मुझको देखते ही वह उठ पड़े और मेरे कन्धों पर हाथ रखकर गदगद स्वर से बोले – “नरेन्द्र! अब मैं चला, किरन तुम्हारे हवाले है।” – यह कहकर किसी की सुकोमल उँगुलियाँ मेरे हाथों में रख दीं। लोचनों के कोने पर दो बूँदें निकलकर झाँक पड़ीं। मैं सहम उठा। क्या उन पर सब बातें विदित थीं? क्या उनकी तीव्र दृष्टि मेरी अन्तर-लहरी तक डूब चुकी थी? वह ठहरे नहीं, चल दिये। मैं काँपता रह गया, किरन देखती रह गई।
सन्नाटा छा गया। वन-वायु भी चुप हो चली। हम दोनों भी चुप चल पड़े, किरन मेरे कन्धे पर थी। हठात अन्तर से कोई अकड़कर कह उठा – “हाय नरेन्द्र! यह क्या! तुम इस वनफूल को किस चमन में ले चले? इस बन्धन-विहीन स्वर्गीय जीवन को किस लोकजाल में बाँधने चले?”
कंकड़ी जल में जाकर कोई स्थायी विवर नहीं फोड़ सकती। क्षण भर जल का समतल भले ही उलट-पुलट हो, लेकिन इधर-उधर से जलतरंग दौड़कर उस छिद्र का नाम-निशान भी नहीं रहने देती। जगत की भी यही चाल है। यदि स्वर्ग से देवेन्द्र भी आकर इस लोक चलाचल में खड़े हों, फिर संसार देखते ही देखते उन्हें अपना बना लेगा। इस काली कोठरी में आकर इसकी कालिमा से बचे रहें, ऐसी शक्ति अब आकाश-कुसुम ही समझो। दो दिन में राम ‘हाय जानकी, हाय जानकी’ कहकर वन-वन डोलते फिरे। दो क्षण में यही विश्वामित्र को भी स्वर्ग से घसीट लाया।
किरन की भी यही अवस्था हुई। कहाँ प्रकृति की निर्मुक्त गोद, कहाँ जगत का जटिल बन्धन-पाश। कहाँ से कहाँ आ पड़ी! वह अलौकिक भोलापन, वह निसर्ग उच्छ्वास – हाथों-हाथ लुट गये। उस वनफूल की विमल कान्ति लौकिक चमन की मायावी मनोहारिता में परिणत हुई। अब आँखें उठाकर आकाश से नीरव बातचीत करने का अवसर कहाँ से मिले? मलयवायु से मिलकर मलयाचल के फूलों की पूछताछ क्यों कर हो?
जब किशोरी नये साँचे में ढलकर उतरी, उसे पहचानना भी कठिन था। वह अब लाल चोली, हरी साड़ी पहनकर, सर पर सिन्दूर-रेखा सजाती और हाथों के कँगन, कानों की बाली, गले की कण्ठी तथा कमर की करधनी – दिन-दिन उसके चित्त को नचाए मारती थी। जब कभी वह सजधजकर चाँदनी में कोठे पर उठती और वसन्त वायु उसके आँचल से मोतिया की लपट लाकर मेरे बरामदे में भर देता, फिर किसी मतवाली माधुरी या तीव्र मदिरा के नशे में मेरा मस्तिष्क घूम जाता और मैं चटपट अपना प्रेम चीत्कार, फूलदार रंगीन चिट्ठी में भरकर जूही के हाथ ऊपर भेजवाता या बाज़ार से दौड़कर कटकी गहने वा विलायती चूड़ी ख़रीद लाता। लेकिन जो हो – अब भी कभी-कभी उसके प्रफुल्ल वदन पर उस अलोक-आलोक की छटा पूर्वजन्म की सुखस्मृतिवत चली आती थी, और आँखें उसी जीवन्त सुन्दर झिकमिक का नाच दिखाती थीं। जब अन्तर प्रसन्न था, फिर बाहरी चेष्टा पर प्रतिबिम्ब क्यों न पड़े।