fbpx
Famous Urdu Shayari Hum Maut Bhi Aaye to Masroor Nahin Hotesahityaduniya.com

Radhikaraman Prasad Singh Kahani Kaanon mein kangana ~(हिंदी की पहली कहानी कौन-सी है? इस सवाल पर अलग-अलग जानकारों के अलग-अलग मत हैं..और उन मतों के अनुसार ही कुछ कहानियों को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है। कुछ दिनों से आप “घनी कहानी छोटी शाखा” में पढ़ रहे हैं, ऐसी ही कुछ कहानियों को, जो मानी जाती हैं हिंदी की पहली कहानियों में से एक..आज से पेश है “राधिकारमण प्रसाद सिंह” की लिखी कहानी “कानों में कँगना”..आज पढ़िए पहला भाग)

कानों में कँगना-राधिकारमण प्रसाद सिंह 

भाग-1

“किरन! तुम्हारे कानों में क्या है?”

उसने कानों से चंचल लट को हटाकर कहा – “कँगना”

“अरे! कानों में कँगना?”-  सचमुच दो कंगन कानों को घेरकर बैठे थे।

“हाँ, तब कहाँ पहनूँ?”

किरन अभी भोरी थी। दुनिया में जिसे भोरी कहते हैं, वैसी भोरी नहीं, उसे वन के फूलों का भोलापन समझो। नवीन चमन के फूलों की भंगी नहीं; विविध खाद या रस से जिनकी जीविका है, निरन्तर काट-छाँट से जिनका सौन्दर्य है, जो दो घड़ी चंचल चिकने बाल की भूषा है – दो घड़ी तुम्हारे फूलदान की शोभा। वन के फूल ऐसे नहीं, प्रकृति के हाथों से लगे हैं। मेघों की धारा से बढ़े हैं। चटुल दृष्टि इन्हें पाती नहीं। जगद्वायु इन्हें छूती नहीं। यह सरल सुन्दर सौरभमय जीवन हैं। जब जीवित रहे, तब चारों तरफ अपने प्राणधन से हरे-भरे रहे, जब समय आया, तब अपनी माँ की गोद में झड़ पड़े।

आकाश स्वच्छ था – नील, उदार सुन्दर। पत्ते शान्त थे। सन्ध्या हो चली थी। सुनहरी किरनें सुदूर पर्वत की चूड़ा से देख रही थीं। वह पतली किरन अपनी मृत्यु-शैया से इस शून्य निविड़ कानन में क्या ढूँढ़ रही थी, कौन कहे! किसे एकटक देखती थी, कौन जाने! अपनी लीला-भूमि को स्नेह करना चाहती थी या हमारे बाद वहाँ क्या हो रहा है, इसे जोहती थी – मैं क्या बता सकूँ? जो हो, उसकी उस भंगी में आकांक्षा अवश्य थी। मैं तो खड़ा-खड़ा उन बड़ी आँखों की किरन लूटता था। आकाश में तारों को देखा या उन जगमग आँखों को देखा, बात एक ही थी। हम दूर से तारों के सुन्दर शून्य झिकमिक को बार-बार देखते हैं, लेकिन वह सस्पन्द निश्चेष्ट ज्योति सचमुच भावहीन है या आप-ही-आप अपनी अन्तर-लहरी से मस्त है, इसे जानना आसान नहीं। हमारी ऐसी आँखें कहाँ कि उनके सहारे उस निगूढ़ अन्तर में डूबकर थाह लें।

मैं रसाल की डोली थामकर पास ही खड़ा था। वह बालों को हटाकर कँगन दिखाने की भंगी प्राणों में रह-रहकर उठती थी। जब माखन चुराने वाले ने गोपियों के सर के मटके को तोड़कर उनके भीतर किले को तोड़ डाला या नूरजहाँ ने आँचल से कबूतर को उड़ाकर शहंशाह के कठोर हृदय की धज्जियाँ उड़ा दीं, फिर नदी के किनारे बसन्त-वल्लभ रसाल पल्लवों की छाया में बैठी किसी अपरूप बालिका की यह सरल स्निग्ध भंगिमा एक मानव-अन्तर पर क्यों न दौड़े?

किरन इन आँखों के सामने प्रतिदिन आ ही जाती थी। कभी आम के टिकोरे से आँचल भर लाती, कभी मौलसिरी के फूलों की माला बना लाती, लेकिन कभी भी ऐसी बाल-सुलभ लीला आँखों से होकर हृदय तक नहीं उतरी। आज क्या था, कौन शुभ या अशुभ क्षण था कि अचानक वह बनैली लता मंदार माला से भी कहीं मनोरम दीख पड़ी। कौन जानता था कि चाल से कुचाल जाने में – हाथों से कँगन भूलकर कानों में पहिनने में – इतनी माधुरी है। दो टके के कँगने में इतनी शक्ति है। गोपियों को कभी स्वप्न में भी नहीं झलका था कि बाँस की बाँसुरी में घूँघट खोलकर नचा देनेवाली शक्ति भरी है।

मैंने चटपट उसके कानों से कँगन उतार लिया। फिर धीरे-धीरे उसकी उँगुलियों पर चढ़ाने लगा। न जाने उस घड़ी कैसी खलबली थी। मुँह से अचानक निकल आया –

“किरन! आज की यह घटना मुझे मरते दम तक न भूलेगी। यह भीतर तक पैठ गई”

उसकी बड़ी-बड़ी आँखें और भी बड़ी हो गईं। मुझे चोट-सी लगी। मैं तत्क्षण योगीश्वर की कुटी की तरफ चल दिया। प्राण भी उसी समय नहीं चल दिए, यही विस्मय था।

एक दिन था कि इसी दुनिया में दुनिया से दूर रहकर लोग दूसरी दुनिया का सुख उठाते थे। हरिचन्दन के पल्लवों की छाया भूलोक पर कहाँ मिले; लेकिन किसी समय हमारे यहाँ भी ऐसे वन थे, जिनके वृक्षों के साए में घड़ी निवारने के लिए स्वर्ग से देवता भी उतर आते थे। जिस पंचवटी का अनन्त यौवन देखकर राम की आँखें भी खिल उठी थीं वहाँ के निवासियों ने कभी अमरतरु के फूलों की माला नहीं चाही, मन्दाकिनी के छींटों की शीतलता नहीं ढूँढ़ी। नन्दनोपवन का सानी कहीं वन भी था! कल्पवृक्ष की छाया में शान्ति अवश्य है; लेकिन कदम की छहियाँ कहाँ मिल सकती। हमारी-तुम्हारी आँखों ने कभी नन्दनोत्सव की लीला नहीं देखी; लेकिन इसी भूतल पर एक दिन ऐसा उत्सव हो चुका है, जिसको देख-देखकर प्रकृति तथा रजनी छह महीने तक ठगी रहीं, शत-शत देवांगनाओं ने पारिजात के फूलों की वर्षा से नन्दन कानन को उजाड़ डाला।

समय ने सब कुछ पलट दिया। अब ऐसे वन नहीं, जहाँ कृष्ण गोलोक से उतरकर दो घड़ी वंशी की टेर दें। ऐसे कुटीर नहीं जिनके दर्शन से रामचन्द्र का भी अन्तर प्रसन्न हो, या ऐसे मुनीश नहीं जो धर्मधुरन्धर धर्मराज को भी धर्म में शिक्षा दें। यदि एक-दो भूले-भटके हों भी, तब अभी तक उन पर दुनिया का परदा नहीं उठा – जगन्माया की माया नहीं लगी। लेकिन वे कब तक बचे रहेंगे? लोक अपने यहाँ अलौकिक बातें कब तक होने देगा! भवसागर की जल-तरंगों पर थिर होना कब सम्भव है ?

क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: राधिकारमण प्रसाद सिंह की लिखी कहानी “कानों में कँगना” का दूसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: राधिकारमण प्रसाद सिंह की लिखी कहानी “कानों में कँगना” का अंतिम भाग

Radhikaraman Prasad Singh Kahani Kaanon mein kangana

‘दिल’ शब्द पर शायरी
संज्ञा और संज्ञा के प्रकार
मन में गहरे पैठती हैं, ममता सिंह के कहानी संग्रह ‘किरकिरी’ की हर कहानी
हिन्दी व्याकरण: वर्णमाला का वर्गीकरण

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *