(हिंदी की पहली कहानी कौन-सी है? इस सवाल पर अलग-अलग जानकारों के अलग-अलग मत हैं..और उन मतों के अनुसार ही कुछ कहानियों को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है। कुछ दिनों से आप “घनी कहानी छोटी शाखा” में पढ़ रहे हैं, ऐसी ही कुछ कहानियों को, जो मानी जाती हैं हिंदी की पहली कहानियों में से एक..आज से पेश है “चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी'” की लिखी कहानी “उसने कहा था”..आज पढ़िए दूसरा और अंतिम भाग) ~ Hindi Ki Pahli Kahani
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उसने कहा था- चंद्रधर शर्मा गुलेरी
घनी कहानी, छोटी शाखा: चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी “उसने कहा था” का पहला भाग
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा..अपने-अपने मामा के घर आए लड़का-लड़की की मुलाक़ात बाज़ार में होती है, जहाँ लड़का, लड़की से एक ही सवाल किया करता है “तेरी कुड़माई हो गयी” हर बार लड़की शरमाकर “धत्त” कहती और भाग जाती..पर एक दिन उसका जवाब आता है..”हाँ, कल ही हो गयी”..कहानी यहाँ से सीधे पहुँचती है युद्ध के मैदान में, जहाँ दुश्मनों ने नए तरह से घात लगायी है, लेकिन उनके इस कारनामे का पता सैनिकों को लग जाता है..सेना के जमादार लहनासिंह दुश्मन को आड़े हाथों लेता है। पर अब दुश्मनों की पूरी सेना ने धावा बोल दिया है। अब आगे…)
अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढकर जर्मन आगे घुसे आते थे..थोड़े मिनटों में…अचानक आवाज़ आयी- “वाहे गुरुजी का खालसा ! वाहेगुरुजी दी फ़तह!’ और धड़ाधड़ बंदूको के फ़ायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे ।
ऐन मौक़े पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच मे आ गये । पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहनासिंह के साथियो के संगीन चल रहे थे । पास आने पर पीछे वालो ने भी संगीन पिरोना शुरु कर दिया।
एक किलकारी और- “अकाल सिक्खाँ दी फ़ौज आयी । वाहे गुरुजी दी फ़तह ! वाहे गुरु जी दा खालसा ! सत्त सिरी अकाल पुरुष!” और लड़ाई ख़त्म हो गई । तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर पार निकल गयी। लहनासिंह की पसली मे एक गोली लगी । उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाक़ी का साफ़ा कसकर कमरबन्द की तरह लपेट लिया । किसी को ख़बर नहीं हुई कि लहना के दूसरा घाव…भारी घाव…लगा है।
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था । ऐसा चाँद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा मे “दंतवीणोपदेशाचार्य” कहलाती।
वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ़्रान्स की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिह से सारा हाल सुन और काग़ज़ात पाकर उसकी तुरन्त बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि- “तू न होता तो आज सब मारे जाते”
इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाईवालों ने सुन ली थी । उन्होंने पीछे टेलिफ़ोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डॉक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ चलीं, जो कोई डेढ घंटे के अन्दर-अन्दर आ पहुँची । फ़ील्ड अस्पताल नज़दीक था, सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गये और दूसरी में लाशें रखी गयीं। सूबेदार ने लहनासिह की जाँध मे पट्टी बँधवानी चाही, बोधसिंह ज्वर से बर्रा रहा था । पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोडा घाव है, सवेरे देखा जायेगा। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा- “तुम्हें बोधा की क़सम है और सूबेदारनी जी की सौगंध है, तो इस गाड़ी में न चले जाओ ।
“और तुम?”
“मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना और जर्मन मुर्दों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होगी। मेरा हाल बुरा नही हैं..देखते नही मैं खड़ा हूँ ? वजीरा सिंह मेरे पास है ही”
“अच्छा..पर…”
“बोधा गाड़ी पर लेट गया ।भला आप भी चढ़ आओ। सुनिए तो , सुबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होने कहा था, वह मैंने कर दिया”
गाडियाँ चल पड़ी थी । सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकडकर कहा- “तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?”
“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैने जो कहा वह लिख देना और कह भी देना”
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया..”वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे, तर हो रहा है”
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है । जन्मभर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं..सारे दृश्यों के रंग साफ़ होते हैं, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का हैं। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ हैं। दहीवाले के यहाँ, सब्ज़ीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि “तेरी कुड़माई हो गई?” तब वह “धत्त” कहकर भाग जाती है।एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा-
“हाँ, कल हो गयी, देखते नही, यह रेशम के फूलों वाला सालू?”- यह सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ…क्रोध हुआ..क्यों हुआ ?
“वजीरासिंह पानी पिला दे”
पच्चीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं. 77 रायफ़ल्स में जमादार हो गया हैं। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नही। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुक़दमे की पैरवी करने वह घर गया। वहाँ रेजीमेंट के अफ़सर की चिट्ठी मिली। फ़ौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते है, लौटते हुए
हमारे घर होते आना..साथ चलेंगे ।
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था । लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा। जब चलने लगे तब सूबेदार बेड़ में से निकलकर आया, बोला- “लहनासिंह, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ”
लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मूझे जानती हैं..? कब से..? रेजीमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं..।
दरवाज़े पर जाकर “मत्था टेकना” कहा। असीम सुनी । लहनासिंह चुप।
“मुझे पहचाना?”
“नहीं..”
“तेरी कुडमाई हो गयी?…धत्त…कल हो गयी, देखते नही, रेशमी बूटों वाला सालू…अमृतसर में…”
भावों की टकराहट से मूर्च्छा खुली। करवट बदली।पसली का घाव बह निकला ।
“वजीरासिंह, पानी पिला”- उसने कहा था ।
स्वप्न चल रहा हैं । सूबेदारनी कह रही है- “मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ, मेरे तो भाग फूट गए..सरकार ने बहादुरी का ख़िताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज नमकहलाली का मौक़ा आया है। पर सरकार ने हम तीमियो की एक घँघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मै भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है…फ़ौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ…उसके पीछे चार और हुए,, पर एक भी नही जिया” – सूबेदारनी रोने लगी- “अब दोनों जाते हैं..मेरे भाग! तुम्हे याद हैं, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे । आप घोड़ो की लातो पर चले गये थे और मुझे उठाकर दुकान के तख़्त के पास खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ”
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी मे चली गयी । लहनासिंह भी आँसू पोछता हुआ बाहर आया ।
“वजीरासिंह, पानी पिला”- उसने कहा था।
लहना का सिर अपनी गोद मे रखे वजीरासिंह बैठा हैं । जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना फिर चुप रहा , फिर बोला- “कौन? कीरतसिंह?”
वजीरा ने कुछ समझकर कहा – “हाँ”
“भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले”
वजीरा ने वैसा ही किया ।
“हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस..अब के हाड़ मे यह आम ख़ूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीँ बैठकर आम खाना, जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैंने इसे लगाया था”
वजीरासिंह के आँसू टप टप टपक रहे थे।
कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा-
फ़्रान्स और बेलजियम..67वीं सूची…मैदान में घावों से मरा…नम्बर. 77 सिख राईफल्स जमादार लहनासिंह।
समाप्त ~ Hindi Ki Pahli Kahani