Suniti Chaudhary Freedom Fighter भारत की सबसे कम उम्र की क्रांतिकारी महिला के रूप में जानी जाने वाली सुनीति चौधरी का जन्म 22 मई 1917 को बंगाल के टिप्पेरा के कोमिला सब डिविज़न में हुआ था। वो एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी थीं लेकिन उनके मन में स्वराज्य के प्रति अलग हाई प्रेम हुआ करता था।जब वो बालिका उच्च विद्यालय में थीं तब वो अपनी सीनियर प्रफुल्ल नंदिनी ब्रह्मा से मिली जो कि एक क्रांतिकारी थीं और अंग्रेज़ी हुकूमत से लोहा लेने के लिए तत्पर रहती थीं। उन्होंने सुनिती चौधरी को कई ऐसी किताबें पढ़ने के लिए दीं जो उस समय अंग्रेज़ी हुकूमत की तरफ़ से प्रतिबंधित थी। यहीं सुनिती चौधरी ने कुछ ऐसा पढ़ा जिसने उनका विचार बदल दिया। ये कथन था स्वामी विवेकानंद का लिखा हुआ “जीवन अपनी मातृभूमि के लिए त्याग का नाम है”
वो दौर था जब अंग्रेज़ी हुकूमत लोगों पर ज़ुल्म ढाया करती थी किसी को भी किसी बात की आज़ादी नहीं थी। ऐसे में जब क्रांतिकारी नारे लगाते निकलते थे तो पुलिस की ओर से भी उन्हें प्रताड़ित किया जाता था ऐसे हालात देखकर 14 साल की उम्र में ही सुनिती चौधरी के मन में देश की आज़ादी की भावनाएँ प्रबल होने लगी थीं। सुनिती खुलकर आंदोलनों में भाग लेने लगीं। यही नहीं सुनिती चौधरी लड़कियों की परेड का नेतृत्व किया करती थीं।
क्रांतिकारियों में महिलाओं के लिए मुख्य कार्य हुआ करते थे कि उन्हें ज़रूरी सूचना, काग़ज़ात, हथियार और पैसे अलग- अलग जगह सुरक्षित पहुँचाने का काम दिया जाता था। ये ज़िम्मेदारी भी सभी को नहीं मिलती थी बल्कि सबसे बहादुर और चालाक युवतियों को ही सौंपी जाती थी। ऐसे में उन सभी युवतियों को ख़ंजर और लाठी चलाना भी सिखाया जाता था। वो सुनिती चौधरी ही थीं जिन्होंने क्रांति के लिए लड़कियों को लड़कों के बराबर ज़िम्मेदारी दिए जाने की माँग की थी। उनका कहना था कि अगर उन्हें वास्तविक लड़ाई में आने ही नहीं मिलेगा तो उनके ख़ंजर और लाठी चलाने के प्रशिक्षण का क्या महत्व है। Suniti Chaudhary Freedom Fighter
उनके इस सवाल ने वाक़ई बदलाव का संकेत दिया और आख़िर उस वक़्त के बड़े स्वतंत्रता सेनानी ने लड़कियों का गुप्त साक्षात्कार लेकर सुनिती चौधरी और उनकी दो अन्य साथियों प्रफुल्ल नंदिनी और शांतिसुधा घोष को ख़ास ट्रेनिंग दी। जिसके लिए तीनों ने स्कूल छोड़कर परवात पर गोलियाँ चलाने का अभ्यास शुरू कर दिया। सुनिती ने अपनी मध्यमा ऊँगली का प्रयोग करके रिवॉल्वार का इस्तेमाल शुरू किया क्योंकि उनकी अनामिका ट्रिगर तक पहुँचती ही नहीं थी।
आख़िर उन्होंने मात्र 14 बरस की उम्र में ही अंग्रेज़ी हुकूमत के एक बड़े अधिकारी पर उसी की ऑफ़िस में हमला बोल दिया और लगातार गोलियाँ चलती रहीं। वो अपनी साथियों के साथ पकड़ी गयीं लेकिन उन्हें इस बात का मलाल नहीं था। उन्होंने ख़ुद पर लगे अपराध को स्वीकार किया लेकिन जब उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी तो उन्हें ये कहते सुना गया कि किसी अस्तबल में रहने से अच्छा है मौत को गले लगाना। उन्हें इस बात का दुःख था कि उन्हें शहीद होने का मौक़ा नहीं मिल रहा।
जेल में बिताए दिन उनके लिए यातना से भरे रहे लेकिन उन्होंने प्रशिक्षण के दौरान ही ख़ुद को दर्द सहने के लिए तैयार किया था। उन्होंने अपने साथियों को लेकर कुछ न बताया। उन्हें कई तरह के दुःख मिले और उनके परिवार के लिए भी परेशानियाँ आयी। लेकिन सुनिती चौधरी ने ख़ुद को देश के लिए समर्पित कर दिया था, उनके सामने ये बातें मायने नहीं रखती थीं। आख़िर जब सुनिती 22 साल की हो गयीं तब उनकी सज़ा को माफ़ी वार्ता के कारण ख़त्म कर दिया गया।
यूँ तो सुनिती चौधरी आंदोलन के काम में इस तरह जुटी रहती थीं कि उन्होंने औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी लेकिन जेल से बाहर आने के बाद भी वो चुप नहीं बैठीं उन्होंने पढ़ाई शुरू की और 1944 में MBBS करना शुरू किया और वो डॉक्टर भी बन गयीं। उन्हें लोग प्यार से ‘लेडी माँ’ कहकर बुलाया करते थे। सुनिती चौधरी ने न सिर्फ़ देश के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाया बल्कि वो परिवार के प्रति भी समर्पित रहीं उन्होंने अपने माता-पिता और बच्चों की ओर अपने कर्तव्य निभाए। देशप्रेम से भरी सुनिती चौधरी ने 12 जनवरी 1988 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
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