बृहस्पतिवार का व्रत- अमृता प्रीतम Vrahaspativar ka vrat
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “बृहस्पतिवार का व्रत” का पहला भाग
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा..पूजा अपने नन्हें बच्चे मन्नू के साथ रहती है और अपने बच्चे के लालन-पालन के लिए पूजा दुनिया के जंगल में भरे ख़तरनाक जीवों के बीच जाकर रोज़ जूझती है। बृहस्पतिवार का दिन उसके लिए बहुत ख़ास होता है क्यूँकि उस एक ही दिन वो अपने बच्चे के सतह दिन बीता पाती है। बच्चे को ममता से दुलारती पूजा इस ख़याल से काँप उठती है कि बड़े होकर उसके बच्चे के सामने जब उसके काम की असलियत आएगी तो वो कैसे इसे अपनाएगा..क्या वो अपनी माँ की मजबूरियाँ समझ पाएगा?..बृहस्पतिवार का ये दिन पूजा को बच्चे मन्नू के साथ बीतने वाले सुखद पल देता है तो एक ओर भविष्य की चिंता से घेरता है और दूसरी ओर उसे अतीत की यादों में भी ले जाता है। अब आगे..)
इसी रोशनी में नरेन्द्र का नाम चमका—नरेन्द्रनाथ चौधरी का जिससे उसने बेपनाह मुहब्बत की थी। और साथ ही उसका अपना नाम भी चमका—गीता, गीता श्रीवास्तव।
वह दोनों अपनी-अपनी जवानी की पहली सीढ़ी चढ़े थे, जब एक-दूसरे पर मोहित हो गए थे। परन्तु चौधरी और श्रीवास्तव दो शब्द थे, जो एक-दूसरे के वजूद से टकरा गए थे। उस समय नरेन्द्र ने अपने नाम से चौधरी व गीता ने अपने नाम से श्रीवास्तव शब्द झाड़ दिया था। और वह दोनों टूटे हुए पंखों वाले पक्षियों की तरह हो गए थे। चौधरी-श्रीवास्तव दोनों शब्दों की एक मजबूरी थी, चाहे-अलग-अलग तरह की थी। चौधरी शब्द के पास अमीरी का ग़ुरूर था। इसलिए उसकी मजबूरी उसका यह भयानक ग़ुस्सा था, जो नरेन्द्र पर बरस पड़ा था। और श्रीवास्तव के पास बीमारी और गरीबी की निराशा थी, जिसकी मजबूरी गीता पर बरस पड़ी थी, और पैसे के कारण दोनों को कॉलेज की पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी।
और जब एक मन्दिर में जाकर दोनों ने विवाह किया था, तब चौधरी और श्रीवास्तव दोनों शब्द उनके साथ मन्दिर में नहीं गए थे। मन्दिर से वापस लौटते कदमों के लिए चौधरी-घर का अमीर दरवाज़ा गुस्से के कारण बन्द हो गया था और श्रीवास्तव-घर का ग़रीबी की मजबूरी के कारण। फिर किसी रोज़गार का कोई भी दरवाज़ा ऐसा नहीं था, जो उन दोनों ने खटखटाकर न देखा हो। सिर्फ़ देखा था कि हर दरवाज़े से मस्तक पटक-पटककर उन दोनों मस्तकों पर सख़्त उदासी के नील पड़ गए थे। रातों को वह बीते हुए दिनों वाले हॉस्टलों में जाकर, किसी अपने जानने वाले के कमरे में पनाह माँग लेते थे और दिन में उनके पैरों के लिए सड़कें खुल जाती थीं। वही दिन थे; जब गीता को बच्चे की उम्मीद हो आई थी। Vrahaspativar ka vrat
गीता की कॉलेज की सहेलियों ने और नरेन्द्र के कॉलेज के दोस्तों ने उन दिनों में कुछ पैसे इकट्ठे किए थे, और दोनों ने जमुना पार की एक नीची बस्ती में सरकण्डों की एक झुग्गी बना ली थी, जिसके बाहर चारपाई बिछाकर गीता आलू, गोभी और टमाटर बेचने लगी थी, और नरेन्द्र नंगे पाँव सड़कों पर घूमता हुआ काम ढूँढ़ने लगा था। खैराती हस्पताल के दिन और भी कठिन थे—और जब गीता अपने सात दिन के मन्नू को गोद में लेकर, सरकण्डों की झुग्गी में वापस आई थी, तो बच्चे के लिए दूध का सवाल भी झुग्गी में आकर बैठ गया था। और कमेटी के नलके से पानी भरकर लाने वाला समय…।
पूजा के पैरों में दर्द की एक लहर उठकर आज भी, उसके पैरों को सुन्न करती हुई, ऊपर रीढ़ की हड्डी में फैल गई, जैसे उस समय फैलती थी, जब वह गीता थी, और उसके हाथ में पकड़ी हुई पानी की बाल्टी का बोझ, पीठ में भी दर्द पैदा करता था, और गर्भ वाले पेट में भी। पूजा ने तहख़ाने में पड़े हुए दिनों को वहीं हाथ से झटककर अँधेरे में फेंक दिया और उस सुलगते हुए कण की ओर देखने लगी, जो आज भी उसके मन के अँधेरे में चमक रहा था। जब वह घबराकर नरेन्द्र की छाती से कसकर लिपट जाती थी—तो उसकी अपनी छाती में से सुख पिघलकर उसकी रगों में दौड़ने लगता था।
पूजा के पैरों से फिर एक कंपन उसके माथे तक गयी—जब तहखाने में पड़े हुए दिनों में से..अचानक एक दिन उठकर काँटे की तरह उसके पैरों में चुभ गया—जब नरेन्द्र को हर रोज़ हल्का-हल्का बुखार चढ़ने लगा था, और वह मन्नू को नरेन्द्र की चारपाई के पास डालकर नौकरी की तलाश करने चली गई थी। उसे यह विचार आया कि वह इस देश में जन्मी-पली नहीं थी, बाप की तरफ से वह श्रीवास्तव कहलाती थी, परन्तु वह नेपाल की लड़की थी, माँ की तरफ से नेपाली, इस कारण उसे शायद अपने या किसी और देश के दूतावास में ज़रूर कोई नौकरी मिल जाएगी और इसी सिलसिले में वह सब्जी बेचने का काम नरेन्द्र को सौंपकर हर रोज़ नौकरी की तलाश में जाने लगी थी।
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‘मिस्टर एच’—पूजा को यह नाम अचानक इस तरह याद आया जैसे वह जीवन के जलकर राख हुए कुछ दिनों को कुरेद रही हो और अचानक उसका हाथ उस राख में किसी गर्म अंगारे को छू गया हो। वह उसे एक दूतावास के ‘रिसेप्शन रूम’ में मिला था। एक दिन कहने लगा-
‘‘गीता देवी ! मैं तुम्हें हर रोज़ यहाँ चक्कर लगाते देखता हूँ। तुम्हें नौकरी चाहिए? मैं तुम्हें नौकरी दिलवा देता हूँ। यह लो, तुम्हें पता लिख देता हूँ, अभी चली जाओ। आज ही नौकरी का प्रबन्ध हो जाएगा…’’- और पूजा, जब गीता होती थी, काग़ज़ का वह टुकड़ा पकड़कर, अचानक मेहरबान हुई क़िस्मत पर हैरान खड़ी रह गई थी।
वह पता एक गेस्ट हाउस की मालकिन—‘मैडम डी.’ का था, जहाँ पहुँचकर वह और भी हैरान रह गई थी, क्योंकि नौकरी देने वाली मैडम डी. उसे ऐसे तपाक से मिली जैसे पुराने दिनों की कोई सहेली मिली हो। गीता को एक ठण्डे कमरे में बिठाकर उसने गर्म चाय और भुने हुए कबाब खिलाए थे। नौकरी किस-किस काम की होगी, कितने घंटे वह कितने तनख़्वाह—जैसे सवाल उसकी होंठों पर जितनी बार आते रहे, मैडम डी. उतनी बार मुस्करा देती थी। कितनी देर के बाद उसने केवल यह कहा था—
‘‘क्या नाम बताया था? मिसेज़ गीता नाथ? परन्तु इसमें कोई आपत्ति तो नहीं अगर मैं मिसेज़ नाथ की अपेक्षा तुम्हें मिस नाथ कहा करूँ ?’’
गीता हैरान हुई, पर हँस पड़ी—‘‘मेरे पति का नाम नरेन्द्र नाथ है। इसी कारण अपने आपको मिसेज़ नाथ कहती हूँ। आप लोग मुझे मिस नाथ कहेंगे तो आज जाकर उन्हें बताऊँगी कि अब मैं उनकी पत्नी के साथ-साथ उनकी बेटी हो गई हूँ।’’
मैडम डी. कुछ देर तक उसके मुँह की तरफ देखती रही, कुछ बोली नहीं, और जब गीता ने पूछा, ‘‘ तनख़्वाह कितनी होगी ?’’ – तो उसने जवाब दिया था—‘‘पचास रुपए रोज़।’’
‘‘सच ?’’ कमरे के सोफे पर बैठी गीता जैसे खुशी से दोहरी होकर मैडम डी. के पास घुटनों के बल बैठ गई थी।
‘‘देखो ! आज तुमने कोई अच्छे कपड़े नहीं पहने हैं! मैं तुम्हें अपनी एक साड़ी उधार देती हूँ, तुम साथ वाले बाथरूम में हाथ धोकर वह साड़ी पहन लो।’’ मैडम डी. ने कहा और गीता मन्त्रमुग्ध-सी उसके कहने पर जब कपड़े बदलकर आई तो मैडम डी. ने पचास रुपए उसके सामने रख दिए-
‘‘आज की तनख्वाह।’’
इस परी-कहानी जैसी नौकरी के जादू के प्रभाव से अभी गीता की आँखें मुँदी जैसी थीं कि मैडम डी. उसका हाथ पकड़कर उसे ऊपर की छत के उस कमरे में छोड़ आई, जहाँ परी-कहानी का एक राक्षस उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
कमरे के दरवाज़े पर बार-बार दस्तक सुनी, तो पूजा ने इस तरह हाँफते हुए दरवाज़ा खोला जैसे वह तहख़ाने में से बहुत-सी सीढ़ियाँ चढ़कर बाहर आई हो।
‘‘रात की रानी—दिन में सो रही थी ?’’ दरवाज़े से अन्दर आते हुए शबनम ने हँसते-हँसते कहा, और पूजा के बिखरे हुए बालों की तरफ देखते हुए कहने लगी, ‘‘तेरी आँखों में तो अभी भी नींद भरी हुई है, रात के खसम ने क्या सारी रात जगाए रखा था ?’’
क्रमशः
Vrahaspativar ka vrat
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “बृहस्पतिवार का व्रत” का अंतिम भाग