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बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
गिर्या चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की
दर ओ दीवार से टपके है बयाबाँ होना
वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझ को
आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना
जल्वा अज़-बस-कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आइना भी चाहे है मिज़्गाँ होना
इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उर्यां होना
ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात
तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना
इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना खाना
लज़्ज़त-ए-रीश-ए-जिगर ग़र्क़-ए-नमक-दाँ होना
की मिरे क़त्ल के बा’द उस ने जफ़ा से तौबा
हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशेमाँ होना
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब‘
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना
[रदीफ़– होना]
[क़ाफ़िए– आसाँ, इंसाँ, बयाबाँ, हैराँ, मिज़्गाँ, उर्यां , गुलिस्ताँ, दाँ, पशेमाँ, गरेबाँ]
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जौन एलिया (Jaun Elia) की ग़ज़ल:
आदमी वक़्त पर गया होगा
वक़्त पहले गुज़र गया होगा
वो हमारी तरफ़ ना देख के भी
कोई एहसान धर गया होगा
ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ
आज हर शख़्स मर गया होगा
शाम तेरे दयार में आख़िर
कोई तो अपने घर गया होगा
[रदीफ़– गया होगा]
[काफ़िए– पर, गुज़र, धर, मर, घर]
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अहमद कमाल परवाज़ी (Ahmed Kamal Parwazi) की ग़ज़ल:
तुझसे बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिससे मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ
तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
मैं अगर झूठ ना बोलूँ तो अकेला हो जाऊँ
मैं तिरी क़ैद को तस्लीम तो करता हूँ मगर
ये मिरे बस में नहीं है कि परिंदा हो जाऊँ
आदमी बन के भटकने में मज़ा आता है
मैंने सोचा ही नहीं था कि फ़रिश्ता हो जाऊँ
वो तो अंदर की उदासी ने बचाया वर्ना
उन की मर्ज़ी तो यही थी कि शगुफ़्ता हो जाऊँ
[रदीफ़- हो जाऊँ]
[क़ाफ़िए- हिस्सा, अच्छा, अकेला, परिंदा, फ़रिश्ता, शगुफ़्ता]
(शगुफ़्ता-खिला हुआ)
निदा फ़ाज़ली (Nida Fazli) की ग़ज़ल: कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता,
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता
कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता
चराग़ जलते हैं बीनाई बुझने लगती है
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता
रदीफ़: नहीं मिलता
क़ाफ़िए: जहाँ, आसमाँ, वहाँ, हम-ज़बाँ,निशाँ
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अल्लामा मुहम्मद “इक़बाल” (Muhammad Iqbal) की ग़ज़ल: तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ
सितम हो कि हो वादा-ए-बे-हिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ
ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ
ज़रा सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतना
वही लन-तरानी सुना चाहता हूँ
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चराग़-ए-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ
भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ
रदीफ़: चाहता हूँ
क़ाफ़िए: इंतिहा, क्या, आज़मा, सामना, सुना, बुझा, सज़ा
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कैफ़ी आज़मी (Kaifi Azmi) की ग़ज़ल: हाथ आ कर लगा गया कोई
हाथ आ कर लगा गया कोई,
मेरा छप्पर उठा गया कोई
लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई
मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई
ये सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई
ऐसी महँगाई है कि चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई
अब वो अरमान हैं न वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई
वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा मोटा ख़ुदा गया कोई
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई
रदीफ़: गया कोई
क़वाफ़ी: लगा, उठा, आ, लगा, खा, उड़ा, ख़ुदा, आ
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अल्लामा इक़बाल (Muhammad Iqbal) की ग़ज़ल: अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा
अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमां तेरा है या मेरा,
मुझे फ़िक्र-ए-जहाँ क्यूँ हो जहां तेरा है या मेरा
अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली,
ख़ता किस की है या रब ला-मकां तेरा है या मेरा
उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर,
मुझे मालूम क्या वो राज़-दां तेरा है या मेरा
मोहम्मद भी तिरा जिबरील भी क़ुरआन भी तेरा,
मगर ये हर्फ़-ए-शीरीं तर्जुमां तेरा है या मेरा
इसी कौकब की ताबानी से है तेरा जहाँ रौशन,
ज़वाल-ए-आदम-ए-ख़ाकी ज़ियाँ तेरा है या मेरा
रदीफ़: तेरा है या मेरा
क़वाफ़ी: आसमां, जहां, मकां, दां, तर्जुमां, ज़ियाँ
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वसीम बरेलवी (Waseem Barelvi) की ग़ज़ल
मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा,
अब इसके ब’अद मिरा इम्तिहान क्या लेगा
ये एक मेला है व’अदा किसी से क्या लेगा,
ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा,
कोई चराग़ नहीं हूँ कि फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए,
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उस का हो नहीं सकता बता न देना उसे,
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता ‘वसीम’
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
रदीफ़: लेगा
क़वाफ़ी: बचा, क्या, रास्ता, जला, क्या, जला और बुला
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जलील मानिकपुरी की ग़ज़ल
दिल है अपना न अब जिगर अपना,
कर गई काम वो नज़र अपना
अब तो दोनों की एक हालत है,
दिल सँभालूँ कि मैं जिगर अपना
मैं हूँ गो बे-ख़बर ज़माने से,
दिल है पहलू में बा-ख़बर अपना
दिल में आए थे सैर करने को,
रह पड़े वो समझ के घर अपना
चारा-गर दे मुझे दवा ऐसी
दर्द हो जाए चारा-गर अपना
वज़्अ-दारी की शान है ये ‘जलील’
रंग बदला न उम्र भर अपना
रदीफ़: अपना
क़वाफ़ी: जिगर, नज़र, जिगर, बा-ख़बर, घर, चारा-गर, उम्र-भर
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शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ (Sheikh Ibrahim Zauq) की ग़ज़ल: चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए
चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हमसे सीख जाए
जी ही जी में तिलमिलाना कोई हमसे सीख जाए
अब्र क्या आँसू बहाना कोई हमसे सीख जाए
बर्क़ क्या है तिलमिलाना कोई हमसे सीख जाए
ज़िक्र-ए-शम-ए-हुस्न लाना कोई हमसे सीख जाए
उन को दर-पर्दा जलाना कोई हमसे सीख जाए
हम ने अव्वल ही कहा था तू करेगा हम को क़त्ल
तेवरों का ताड़ जाना कोई हमसे सीख जाए
लुत्फ़ उठाना है अगर मंज़ूर उसके नाज़ का
पहले उस का नाज़ उठाना कोई हमसे सीख जाए
जो सिखाया अपनी क़िस्मत ने वगरना उस को ग़ैर
क्या सिखाएगा सिखाना कोई हमसे सीख जाए
ख़त में लिखवा कर उन्हें भेजा तो मतला दर्द का
दर्द-ए-दिल अपना जताना कोई हमसे सीख जाए
जब कहा मरता हूँ वो बोले मिरा सर काट कर
झूट को सच कर दिखाना कोई हमसे सीख जाए
रदीफ़: कोई हमसे सीख जाए
क़वाफ़ी: खाना, तिलमिलाना, बहाना, तिलमिलाना, जलाना, जाना, उठाना, सिखाना, जताना, दिखाना
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अहमद फ़राज़ (Ahmed Faraz) की ग़ज़ल: दुख फ़साना नहीं कि तुझसे कहें
दुख फ़साना नहीं कि तुझसे कहें
दिल भी माना नहीं कि तुझसे कहें
आज तक अपनी बेकली का सबब
ख़ुद भी जाना नहीं कि तुझसे कहें
बे-तरह हाल-ए-दिल है और तुझसे
दोस्ताना नहीं कि तुझसे कहें
एक तू हर्फ़-ए-आश्ना था मगर
अब ज़माना नहीं कि तुझसे कहें
क़ासिदा हम फ़क़ीर लोगों का
इक ठिकाना नहीं कि तुझसे कहें
ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त
आब-ओ-दाना नहीं कि तुझसे कहें
अब तो अपना भी उस गली में ‘फ़राज़’
आना जाना नहीं कि तुझसे कहें
रदीफ़: नहीं कि तुझसे कहें
क़वाफ़ी: फ़साना, माना, जाना, दोस्ताना, ज़माना, ठिकाना, आब-ओ-दाना, जाना
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परवीन शाकिर (Parveen Shakir) की ग़ज़ल:
Koo Ba Koo Phail Gayi Baat Shanasayi Ki
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की,
उसने ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उसने
बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मिरे हरजाई की
तेरा पहलू तिरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की
उसने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की
[रदीफ़- की]
[क़ाफ़िया- शनासाई, पज़ीराई, रुसवाई, हरजाई, तन्हाई, मसीहाई, अंगडाई]
Koo Ba Koo Phail Gayi Baat Shanasayi Ki
……………………………… Best Urdu Ghazals
हसरत मोहानी (Hasrat Mohani) की ग़ज़ल:
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है
बार बार उठना उसी जानिब निगाह-ए-शौक़ का,
और तिरा ग़ुर्फ़े से वो आँखें लड़ाना याद है
तुझसे कुछ मिलते ही वो बेबाक हो जाना मिरा,
और तिरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है
खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ’तन,
और दुपट्टे से तिरा वो मुँह छुपाना याद है
जान कर सोता तुझे वो क़स्द-ए-पा-बोसी मिरा,
और तिरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है
तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़-राह-ए-लिहाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है
ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए,
वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
आज तक नज़रों में है वो सोहबत-ए-राज़-ओ-नियाज़
अपना जाना याद है तेरा बुलाना याद है
मीठी मीठी छेड़ कर बातें निराली प्यार की
ज़िक्र दुश्मन का वो बातों में उड़ाना याद है
देखना मुझ को जो बरगश्ता तो सौ सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है
चोरी चोरी हमसे तुम आ कर मिले थे जिस जगह,
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है
शौक़ में मेहंदी के वो बे-दस्त-ओ-पा होना तिरा
और मिरा वो छेड़ना वो गुदगुदाना याद है
बावजूद-ए-इद्दिया-ए-इत्तिक़ा ‘हसरत’ मुझे,
आज तक अहद-ए-हवस का वो फ़साना याद है
[रदीफ़- याद है]
[क़ाफ़िए- बहाना, ज़माना, लड़ाना, दबाना, छुपाना, मुस्कुराना, जताना, आना, रुलाना, आना, बुलाना, उडाना, जाना, ठिकाना, गुदगुदाना, फ़साना]
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फै़ज़ अहमद फै़ज़ (Faiz Ahmed Faiz) की ग़ज़ल – हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए
Har Haqeeqat Majaz Ho Jaye
हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए
काफ़िरों की नमाज़ हो जाए
मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे,
दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए
इश्क़ दिल में रहे तो रुस्वा हो
लब पे आए तो राज़ हो जाए
लुत्फ़ का इंतिज़ार करता हूँ
जौर ता हद्द-ए-नाज़ हो जाए
उम्र बे-सूद कट रही है ‘फ़ैज़’
काश इफ़शा-ए-राज़ हो जाए
[रदीफ़- हो जाए]
[क़ाफ़िए- मजाज़, नमाज़, नवाज़, राज़, नाज़, राज़]
Har Haqeeqat Majaz Ho Jaye
……………………………………………. Best Urdu Ghazals
असग़र गोंडवी (Asghar Gondvi) की ग़ज़ल: जान-ए-नशात हुस्न की दुनिया कहें जिसे
जान-ए-नशात हुस्न की दुनिया कहें जिसे,
जन्नत है एक ख़ून-ए-तमन्ना कहें जिसे
उस जल्वा-गाह-ए-हुस्न में छाया है हर तरफ़,
ऐसा हिजाब चश्म-ए-तमाशा कहें जिसे
ये असल ज़िंदगी है ये जान-ए-हयात है,
हुस्न-ए-मज़ाक़ शोरिश-ए-सौदा कहें जिसे
अक्सर रहा है हुस्न-ए-हक़ीक़त भी सामने,
इक मुस्तक़िल सराब-ए-तमन्ना कहें जिसे
ज़िंदानियों को आ के न छेड़ा करे बहुत
जान-ए-बहार निकहत-ए-रुस्वा कहें जिसे
इस हौल-ए-दिल से गर्म-रौ-ए-अरसा-ए-वजूद
मेरा ही कुछ ग़ुबार है दुनिया कहें जिसे
शायद मिरे सिवा कोई उस को समझ सके
वो रब्त-ए-ख़ास रंजिश-ए-बेजा कहें जिसे
‘असग़र’ न खोलना किसी हिकमत-मआब पर
राज़-ए-हयात साग़र ओ मीना कहें जिसे
[रदीफ़- कहें जिसे]
[क़ाफ़िए- दुनिया, तमन्ना, तमाशा, सौदा, तमन्ना, रुस्वा, दुनिया, बेजा, मीना]
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