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Famous Urdu Shayari Hum Maut Bhi Aaye to Masroor Nahin Hotesahityaduniya.com

Hindi Kahani Saut (हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद का अपना ही एक स्थान है। अपने ज़माने से आज तक वो पाठकों के हृदय में अपना स्थान बनाए हुए हैं। उनकी रचनाओं में जहाँ समाज, मानवीय गुण-दोषों का समावेश मिलता है, वहीं वो समकालीन ही लगती है। मुंशी प्रेमचंद के जन्मतिथि पर पढ़िए, उनकी लिखी कहानी “सौत“.. कुछ जानकार इस कहानी को उनकी पहली कहानी भी मानते हैं..आज पढ़िए इस कहानी का तीसरा और अंतिम भाग) 

सौत- मुंशी प्रेमचंद  ~ Hindi Kahani Saut
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी “सौत” का पहला भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी “सौत” का दूसरा भाग
भाग-3 

(अब तक आपने पढ़ा। रजिया का पति रामू जब उसके रहते ही दूसरी स्त्री घर ले आता है तो इस बात से नाराज़ रजिया आख़िर एक दिन वो घर छोड़कर पास के गाँव में बस जाती है। मेहनती और संचय के गुण से सम्पन्न रजिया तीन साल में अपने दम पर इस गाँव में भी अपना घर और बैलों की जोड़ी जोड़ लेती है। वहीं उसके पति रामू के गाँव से आया एक आदमी उसे रामू की गम्भीर बीमारी की ख़बर देता है, रामू से नाराज़ रजिया एक बार को तो उसकी बीमारी को उसके कर्म का फल ही कह देती है। पर कठिन परिश्रम और अपने बल पर जीने की आज़ादी की आँच में पका उसका व्यक्तित्व ने उसे ज़िंदगी के सारे जलन और ईर्ष्या के भाव से मुक्त कर दिया है। रामू की सहायता का मन बनाकर आख़िर रजिया किसी बुलावे का इंतज़ार न करके, रामू के घर की ओर अपने क़दम बढ़ा चुकी है। अब आगे…) 

 

रामू को थोड़े ही दिनों में मालूम हो गया था कि उसके घर की आत्मा निकल गई, और वह चाहे कितना ज़ोर करे, कितना ही सिर खपाये, उसमें स्फूर्ति नहीं आती। दासी सुन्दरी थी, शौक़ीन थी और फूहड़ थी। जब पहला नशा उतरा, तो ठांय-ठायं शुरू हुई। खेती की उपज कम होने लगी, और जो होती भी थी, वह ऊटपटाँग ख़र्च होती थी। ऋण लेना पड़ता था। इसी चिन्ता और शोक में उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। शुरू में कुछ परवाह न की। परवाह करके ही क्या करता। घर में पैसे न थे। अताइयों की चिकित्सा ने बीमारी की जड़ और मजबूत कर दी और आज दस-बारह दिन से उसका दाना-पानी छूट गया था। मौत के इन्तजार में खाट पर पड़ा कराह रहा था। और अब वह दशा हो गई थी जब हम भविष्य से निश्चिन्त होकर अतीत में विश्राम करते हैं, जैसे कोई गाड़ी आगे का रास्ता बन्द पाकर पीछे लौटे। रजिया को याद करके वह बार-बार रोता और दासी को कोसता- “तेरे ही कारण मैंने उसे घर से निकाला। वह क्या गई, लक्ष्मी चली गई। मैं जानता हूं, अब भी बुलाऊँ तो दौड़ी आएगी, लेकिन बुलाऊँ किस मुँह से! एक बार वह आ जाती और उससे अपने अपराध क्षमा करा लेता, फिर मैं ख़ुशी से मरता..और कोई लालसा नहीं है”

सहसा रजिया ने आकर उसके माथे पर हाथ रखते हुए पूछा- “कैसा जी है तुम्हारा? मुझे तो आज हाल मिला”

रामू ने सजल नेत्रों से उसे देखा, पर कुछ कह न सका। दोनों हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया, पर हाथ जुड़े ही रह गये, और आँख उलट गई।

लाश घर में पड़ी थी, रजिया रोती थी, दसिया चिन्तित थी। घर में रूपए का नाम नहीं। लकड़ी तो चाहिए ही, उठाने वाले भी जलपान करेंगे ही, कफ़न के बग़ैर लाश उठेगी कैसे? दस से कम का ख़र्च न था। यहाँ घर में दस पैसे भी नहीं। डर रही थी कि आज गहन आफ़त आई। ऐसी क़ीमती भारी गहने ही कौन थे…किसान की बिसात ही क्या, दो-तीन नग बेचने से दस मिल जाएँगे, मगर और हो ही क्या सकता है। उसने चौधरी के लड़के को बुलाकर कहा- “देवर जी, यह बेड़ा कैसे पार लागे! गाँव में कोई धेले का भी विश्वास करने वाला नहीं। मेरे गहने हैं। चौधरी से कहो, इन्हें गिरों रखकर आज का काम चलाएँ, फिर भगवान मालिक है” ~ Hindi Kahani Saut

“रजिया से क्यों नहीं माँग लेती”

सहसा रजिया आँखें पोंछती हुई आ निकली। कान में भनक पड़ी। पूछा- “क्या है जोखूं, क्या सलाह कर रहे हो? अब मिट्टी उठाओगे कि सलाह की बेला है?”

“हाँ, उसी का सरंजाम कर रहा हूँ”

“रुपए-पैसे तो यहाँ होंगे नहीं। बीमारी में खरच हो गए होंगे। इस बेचारी को तो बीच मंझधार में लाकर छोड़ दिया। तुम लपक कर उस घर चले जाओ भैया! कौन दूर है, कुंजी लेते जाओ। मजूर से कहना, भंडार से पचास रुपए निकाल दे। कहना, ऊपर की पटरी पर रखे हैं”

वह तो कुंजी लेकर उधर गया, इधर दसिया राजो के पैर पकड़ कर रोने लगी। बहनापे के ये शब्द उसके हृदय में पैठ गए। उसने देखा, रजिया में कितनी दया, कितनी क्षमा है।

रजिया ने उसे छाती से लगाकर कहा- “क्यों रोती है बहन? वह चला गया। मैं तो हूँ..किसी बात की चिन्ता न कर। इसी घर में हम और तुम दोनों उसके नाम पर बैठेंगी। मैं वहाँ भी देखूँगी…यहाँ भी देखूँगी। धाप-भर की बात ही क्या? कोई तुमसे गहने-पाते माँगे तो मत देना”

दसिया का जी होता था कि सिर पटक कर मर जाय। इसे उसने कितना जलाया, कितना रुलाया और घर से निकाल कर छोड़ा।

रजिया ने पूछा- “जिस-जिस के रुपए हों, सूरत करके मुझे बता देना। मैं झगड़ा नहीं रखना चाहती। बच्चा दुबला क्यों हो रहा है?”

दसिया बोली- “मेरे दूध होता ही नहीं। गाय जो तुम छोड़ गई थीं, वह मर गई..दूध नहीं पाता”

“राम-राम! बेचारा मुरझा गया। मैं कल ही गाय लाऊँगी। सभी गृहस्थी उठा लाऊँगी। वहां क्या रक्खा है”

लाश घर से उठी। रजिया उसके साथ गई। दाहकर्म किया। भोज हुआ। कोई दो सौ रुपए ख़र्च हो गए। किसी से मांगने न पड़े।

दसिया के जौहर भी इस त्याग की आँच में निकल आए। विलासिनी सेवा की मूर्ति बन गई।

आज रामू को मरे सात साल हुए हैं। रजिया घर सम्भाले हुए है। दसिया को वह सौत नहीं, बेटी समझती है। पहले उसे पहनाकर तब आप पहनती हैं, उसे खिलाकर आप खाती है। जोखूँ पढ़ने जाता है। उसकी सगाई की बातचीत पक्की हो गई। इस जाति में बचपन में ही ब्याह हो जाता है। दसिया ने कहा- “बहन गहने बनवा कर क्या करोगी। मेरे गहने तो धरे ही हैं”

रजिया ने कहा- “नहीं री, उसके लिए नए गहने बनवाऊँगी। अभी तो मेरा हाथ चलता हैं जब थक जाऊँ, तो जो चाहे करना। तेरे अभी पहनने-ओढ़ने के दिन हैं, तू अपने गहने रहने दे”

नाइन ठकुरसोहाती करके बोली- “आज जोखूँ के बाप होते, तो कुछ और ही बात होती”

रजिया ने कहा- “वे नहीं हैं तो,  मैं तो हूं। वे जितना करते, मैं उसका दूना करूँगी। जब मैं मर जाऊँ, तब कहना जोखूँ का बाप नहीं है!”

ब्याह के दिन दसिया को रोते देखकर रजिया ने कहा- “बहू, तुम क्यों रोती हो? अभी तो मैं जीती हूं। घर तुम्हारा है जैसे चाहो रहो। मुझे एक रोटी दे दो, बस। और मुझे क्या करना है। मेरा आदमी मर गया। तुम्हारा तो अभी जीता है”

दसिया ने उसकी गोद में सिर रख दिया और ख़ूब रोई- “जीजी, तुम मेरी माता हो। तुम न होतीं, तो मैं किसके द्वार पर खड़ी होती। घर में तो चूहे लोटते थे। उनके राज में मुझे दुख ही दुख उठाने पड़े। सोहाग का सुख तो मुझे तुम्हारे राज में मिला। मैं दुख से नहीं रोती, रोती हूं भगवान की दया पर कि कहाँ मैं और कहाँ  यह खुशहाली!

रजिया मुस्करा कर रो दी।

समाप्त
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