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Hindi Kahani Hairat Maryana Part 2 Urdu Mein Shabdon ka prayogUrdu Mein Shabdon ka prayogsahityaduniya.com

Munshi Premchand Ki Kahani Saut ~ (हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद का अपना ही एक स्थान है। अपने ज़माने से आज तक वो पाठकों के हृदय में अपना स्थान बनाए हुए हैं। उनकी रचनाओं में जहाँ समाज, मानवीय गुण-दोषों का समावेश मिलता है, वहीं वो समकालीन ही लगती है। मुंशी प्रेमचंद के जन्मतिथि पर पढ़िए, उनकी लिखी कहानी “सौत”.. कुछ जानकार इस कहानी को उनकी पहली कहानी भी मानते हैं..आज पढ़िए इस कहानी का पहला भाग)  ~ Munshi Premchand Ki Kahani Saut

सौत- मुंशी प्रेमचंद 

भाग-1 

जब रजिया के दो-तीन बच्चे होकर मर गये और उम्र ढल चली, तो रामू का प्रेम उससे कुछ कम होने लगा और दूसरे ब्याह की धुन सवार हुई। आए दिन रजिया से बकझक होने लगी। रामू एक-न-एक बहाना खोजकर रजिया पर बिगड़ता और उसे मारता। और अन्त को वह नई स्त्री ले ही आया। इसका नाम था दासी। चम्पई रंग था, बड़ी-बडी आंखें, जवानी की उम्र। पीली, कुंशागी रजिया भला इस नवयौवना के सामने क्या जँचती! फिर भी वह जाते हुए स्वामित्व को, जितने दिन हो सके अपने अधिकार में रखना चाहती थी। तिगरते हुए छप्पर को थूनियों से सम्हालने की चेष्टा कर रही थी। इस घर को उसने मर-मरकर बनाया है। उसे सहज ही में नहीं छोड़ सकती। वह इतनी बेसमझ नहीं है कि घर छोड़कर चली जाए और दासी राज करे।

एक दिन रजिया ने रामू से कहा- “मेरे पास साड़ी नहीं है, जाकर ला दो”

रामू उसके एक दिन पहले दासी के लिए अच्छी-सी चुंदरी लाया था। रजिया की मांग सुनकर बोला- “मेरे पास अभी रूपया नहीं है”

रजिया को साड़ी की उतनी चाह न थी जितनी रामू और दसिया के आनन्द में विध्न डालने की। बोली- “रूपए नहीं थे, तो कल अपनी चहेती के लिए चुंदरी क्यों लाये? चुंदरी के बदले उसी दाम में दो साड़ियां लाते, तो एक मेरे काम न आ जाती?”

रामू ने स्वेच्छा भाव से कहा- “मेरी इच्छा, जो चाहूंगा, करूंगा, तू बोलने वाली कौन है? अभी उसके खाने-खेलने के दिन है। तू चाहती हैं, उसे अभी से नून-तेल की चिन्ता में डाल दूँ। यह मुझसे न होगा। तुझे ओढ़ने -पहनने की साध है तो काम कर, भगवान ने क्या हाथ-पैर नहीं दिए। पहले तो घड़ी रात उठकर काम धंघे में लग जाती थी। अब उसकी डाह में पहर दिन तक पड़ी रहती है। तो रूपए क्या आकाश से गिरेंगे? मैं तेरे लिए अपनी जान थोड़े ही दे दूँगा”

रजिया ने कहा- “तो क्या मैं उसकी नौकर हूं कि वह रानी की तरह पड़ी रहे और मैं घर का सारा काम करती रहूं? इतने दिनों छाती फाड़कर काम किया, उसका यह फल मिला, तो अब मेरी बला काम करने आती है”

“मैं जैसे रखूँगा, वैसे ही तुझे रहना पड़ेगा”

“मेरी इच्छा होगी रहूँगी, नहीं अलग हो जाऊँगी”

“जो तेरी इच्छा हो..कर, मेरा गला छोड़”

“अच्छी बात है..आज से तेरा गला छोड़ती हूँ..समझ लूँगी विधवा हो गई”

रामू दिल में इतना तो समझता था कि यह गृहस्थी रजिया की जोड़ी हुई हैं, चाहे उसके रूप में उसके लोचन-विलास के लिए आकर्षण न हो। सम्भव था, कुछ देर के बाद वह जाकर रजिया को मना लेता, पर दासी भी कूटनीति में कुशल थी। उसने गरम लोहे पर चोटें जमाना शुरू कीं। बोली- “आज देवी जी किस बात पर बिगड़ रही थी”

रामू ने उदास मन से कहा- “तेरी चुंदरी के पीछे रजिया महाभारत मचाए हुए है। अब कहती है, अलग रहूँगी। मैंने कह दिया, तेरी जो इच्छा हो कर”

दसिया ने आँखें मटकाकर कहा- “यह सब नख़रे हैं कि आकर हाथ-पाँव जोड़े, मनावन करें, और कुछ नहीं। तुम चुपचाप बैठे रहो। दो-चार दिन में आप ही गरमी उतर जाएगी। तुम कुछ बोलना नहीं, उसका मिज़ाज और आसमान पर चढ़ जाएगा”

रामू ने गम्भीर भाव से कहा- “दासी, तुम जानती हो, वह कितनी घमण्डिन है। वह मुँह से जो बात कहती है, उसे करके छोड़ती है”

रजिया को भी रामू से ऐसी कृतध्नता की आशा न थी। वह जब पहले की-सी सुन्दर नहीं, इसलिए रामू को अब उससे प्रेम नहीं है। पुरूष चरित्र में यह कोई असाधारण बात न थी, लेकिन रामू उससे अलग रहेगा, इसका उसे विश्वास न आता था। यह घर उसी ने पैसा जोड़-जोड़ कर बनवाया। गृहस्थी भी उसी की जोड़ी हुई है। अनाज का लेन-देन उसी ने शुरू किया। इस घर में आकर उसने कौन-कौन से कष्ट नहीं झेले, इसीलिए तो कि पौरूष थक जाने पर एक टुकड़ा चैन से खाएगी और पड़ी रहेगी, और आज वह इतनी निर्दयता से दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक दी गई! रामू ने इतना भी नहीं कहा- तू अलग नहीं रहने पाएगी। मैं या ख़ुद मर जाऊँगा या तुझे मार डालूँगा, पर तुझे अलग न होने दूँगा। तुझसे मेरा ब्याह हुआ है। हँसी-ठट्ठा नहीं है। तो जब रामू को उसकी परवाह नहीं है, तो वह रामू की क्यों परवाह करे। क्या सभी स्त्रियों के पुरुष बैठे होते हैं? सभी के मां-बाप, बेटे-पोते होते हैं? आज उसके लड़के जीते होते, तो मजाल थी कि यह नई स्त्री लाते, और मेरी यह दुर्गति करते? इस निर्दयी को मेरे ऊपर इतनी भी दया न आई?”

नारी-हृदय की सारी परवशता इस अत्याचार से विद्रोह करने लगी। वही आग जो मोटी लकड़ी को स्पर्श भी नहीं कर सकती, फूस को जलाकर भस्म कर देती है।

दूसरे दिन रजिया एक दूसरे गाँव में चली गई। उसने अपने साथ कुछ न लिया। जो साड़ी उसकी देह पर थी, वही उसकी सारी सम्पत्ति थी। विधाता ने उसके बालकों को पहले ही छीन लिया था! आज घर भी छीन लिया!

रामू उस समय दासी के साथ बैठा हुआ आमोद-विनोद कर रहा था। रजिया को जाते देखकर शायद वह समझ न सका कि वह चली जा रही है। रजिया ने यही समझा। इस तरह चोरों की भाँति वह जाना भी न चाहती थी। वह दासी को, उसके पति को और सारे गाँव को दिखा देना चाहती थी कि वह इस घर से धेले की भी चीज़ नहीं ले जा रही है। गाँव वालों की दृष्टि में रामू का अपमान करना ही उसका लक्ष्य था। उसके चुपचाप चले जाने से तो कुछ भी न होगा। रामू उल्टा सबसे कहेगा, रजिया घर की सारी सम्पदा उठा ले गई।

उसने रामू को पुकारकर कहा- “सम्हालो अपना घर। मैं जाती हूँ। तुम्हारे घर की कोई भी चीज़ अपने साथ नहीं ले जाती”

रामू एक क्षण के लिए कर्तव्य-भ्रष्ट हो गया। क्या कहे, उसकी समझ में नहीं आया। उसे आशा न थी कि वह यों जाएगी। उसने सोचा था, जब वह घर ढोकर ले जाने लगेगी, तब वह गाँव वालों को दिखाकर उनकी सहानुभूति प्राप्त करेगा। अब क्या करे?

दसिया बोली- “जाकर गाँव में ढिंढोरा पीट आओ। यहां किसी का डर नहीं है। तू अपने घर से ले ही क्या आई थी, जो कुछ लेकर जाओगी”

रजिया ने उसके मुँह न लगकर रामू ही से कहा- “सुनते हो, अपनी चहेती की बातें। फिर भी मुँह नहीं खुलता। मैं तो जाती हूं, लेकिन दस्सो रानी, तुम भी बहुत दिन राज न करोगी। ईश्वर के दरबार में अन्याय नहीं फलता। वह बड़े-बड़े घमण्डियों के घमण्ड चूर कर देते हैं”

दसिया ठट्ठा मारकर हँसी, पर रामू ने सिर झुका लिया..रजिया चली गई।

क्रमशः

घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी “सौत” का दूसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी “सौत” का अंतिम भाग

~ Munshi Premchand Ki Kahani Saut

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