Premchand Ki Kahani Saut ~ (हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद का अपना ही एक स्थान है। अपने ज़माने से आज तक वो पाठकों के हृदय में अपना स्थान बनाए हुए हैं। उनकी रचनाओं में जहाँ समाज, मानवीय गुण-दोषों का समावेश मिलता है, वहीं वो समकालीन ही लगती है। मुंशी प्रेमचंद के जन्मतिथि पर पढ़िए, उनकी लिखी कहानी “सौत“.. कुछ जानकार इस कहानी को उनकी पहली कहानी भी मानते हैं..आज पढ़िए इस कहानी का दूसरा भाग)
सौत- मुंशी प्रेमचंद
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी “सौत” का पहला भाग
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा…रजिया की ढलती उम्र में उसका पति रामू एक नयी स्त्री को ले आता है। रजिया ने अपने परिश्रम से जिस घर को बनाया है उसमें किसी दूसरी स्त्री का राज उसे नहीं भाता, रामू से अनबन के बावजूद वो रामू पर अपना अधिकार समझकर उससे तरह-तरह की फ़रमाइशें और झगड़े करती है, यहाँ तक की घर छोड़कर जाने की धमकी तक देती है। हर बार रामू उसे मना लिया करता है लेकिन इस बार रामू भी मनाने का कोई यत्न नहीं करता और रजिया को ये बात ऐसी चुभती है कि वो अपने ही बसाए घर से बिना कुछ लिए चली जाती है और रामू उसे रोकने की कोशिश भी नहीं करता। अब आगे..)
तीन साल एक करके रजिया ने कैसे काटे, कैसे एक नई गृहस्थी बनाई, कैसे खेती शुरू की, इसका बयान करने बैठें, तो पोथी हो जाए। संचय के जितने मंत्र हैं, जितने साधन हैं, वे रजिया को ख़ूब मालूम थे। फिर अब उसे लाग हो गई थी और लाग में आदमी की शक्ति का वारापार नहीं रहता। गाँव वाले उसका परिश्रम देखकर दाँतों ऊँगली दबाते थे। वह रामू को दिखा देना चाहती है-मैं तुमसे अलग होकर भी आराम से रह सकती हूं। वह अब पराधीन नारी नहीं है। अपनी कमाई खाती है।
रजिया के पास बैलों की एक अच्छी जोड़ी है। रजिया उन्हें केवल खली-भूसी देकर नहीं रह जाती, रोज़ दो-दो रोटियाँ भी खिलाती है। फिर उन्हें घंटों सहलाती। कभी-कभी उनके कंधों पर सिर रखकर रोती है और कहती है, अब बेटे हो तो, पति हो तो..तुम्हीं हो। मेरी जान अब तुम्हारे ही साथ है। दोनों बैल शायद रजिया की भाषा और भाव समझते हैं। वे मनुष्य नहीं, बैल हैं। दोनों सिर नीचा करके रजिया का हाथ चाटकर उसे आश्वासन देते हैं। वे उसे देखते ही, कितने प्रेम से उसकी ओर ताकने लगते हैं, कितने हर्ष से कंधा झुलाकर पर जुवा रखवाते हैं और कैसा जी तोड़ काम करते हैं, यह वे लोग समझ सकते हैं, जिन्होंने बैलों की सेवा की है और उनके हृदय को अपनाया है।
रजिया इस गांव की चौधराइन है। उसकी बुद्धि जो पहिले नित्य आधार खोजती रहती थी और स्वच्छन्द रूप से अपना विकास न कर सकती थी, अब छाया से निकलकर प्रौढ़ और उन्नत हो गई है।
एक दिन रजिया घर लौटी, तो एक आदमी ने कहा- “तुमने नहीं सुना, चौधराइन, रामू तो बहुत बीमार है। सुना दस लंघन हो गये हैं”
रजिया ने उदासीनता से कहा- “जूड़ी है क्या?”
“जूड़ी, नहीं, कोई दूसरा रोग है। बाहर खाट पर पड़ा था। मैंने पूछा, कैसा जी है रामू? तो रोने लगा। बुरा हाल है। घर में एक पैसा भी नहीं कि दवा-दारू करें। दसिया के एक लड़का हुआ है। वह तो पहले भी काम-धन्धा न करती थी और अब तो लड़कोरी है, कैसे काम करने आए। सारी मार रामू के सिर जाती है। फिर गहने चाहिए, नई दुलहिन यों कैसे रहे” ~ Premchand Ki Kahani Saut
रजिया ने घर में जाते हुए कहा-“जो जैसा करेगा, आप भोगेगा”
लेकिन अन्दर उसका जी न लगा। वह एक क्षण में फिर बाहर आई। शायद उस आदमी से कुछ पूछना चाहती थी और इस अन्दाज़ से पूछना चाहती थी, मानो उसे कुछ परवाह नहीं है। ~ Premchand Ki Kahani Saut
पर वह आदमी चला गया था। रजिया ने पूरव-पच्छिम जा-जाकर देखा। वह कहीं न मिला। तब रजिया द्वार के चौखट पर बैठ गई। उसे वो शब्द याद आये, जो उसने तीन साल पहले रामू के घर से चलते समय कहे थे। उस वक़्त जलन में उसने वह शाप दिया था। अब वह जलन न थी। समय ने उसे बहुत कुछ शान्त कर दिया था। रामू और दासी की हीनावस्था अब ईर्ष्या के योग्य नहीं, दया के योग्य थी।
उसने सोचा, रामू को दस लंघन हो गये हैं, तो अवश्य ही उसकी दशा अच्छी न होगी। कुछ ऐसा मोटा-ताज़ा तो पहले भी न था, दस लंघन ने तो बिल्कुल ही घुला डाला होगा। फिर इधर खेती-बारी में भी टोटा ही रहा। खाने-पीने को भी ठीक-ठीक न मिला होगा…
पड़ोसी की एक स्त्री ने आग लेने के बहाने आकर पूछा- “सुना, रामू बहुत बीमार हैं जो जैसी करेगा, वैसा पायेगा। तुम्हें इतनी बेदर्दी से निकाला कि कोई अपने बैरी को भी न निकालेगा”
रजिया ने टोका- “नहीं दीदी, ऐसी बात न थी। वे तो बेचारे कुछ बोले ही नहीं। मैं चली तो सिर झुका लिया। दसिया के कहने में आकर वह चाहे जो कुछ कर बैठे हों, यों मुझे कभी कुछ नहीं कहा। किसी की बुराई क्यों करूँ। फिर कौन मर्द ऐसा है जो औरतों के बस नहीं हो जाता। दसिया के कारण उनकी यह दशा हुई है”
पड़ोसिन ने आग न माँग, मुँह फेरकर चली गई।
रजिया ने कलसा और रस्सी उठाई और कुएँ पर पानी खींचने गई। बैलों को सानी-पानी देने की बेला आ गई थी, पर उसकी आँखें उस रास्ते की ओर लगी हुई थीं, जो मलसी (रामू का गाँव) को जाता था। कोई उसे बुलाने अवश्य आ रहा होगा। नहीं, बिना बुलाए वह कैसे जा सकती है। लोग कहेंगे, आख़िर दौड़ी आई न!
मगर रामू तो अचेत पड़ा होगा। दस लंघन थोड़े नहीं होते। उसकी देह में था ही क्या। फिर उसे कौन बुलाएगा? दसिया को क्या गरज पड़ी है। कोई दूसरा घर कर लेगी। जवान है। सौ गाहक निकल आवेंगे। अच्छा वह आ तो रहा है। हाँ, आ रहा है। कुछ घबराया-सा जान पड़ता है। कौन आदमी है, इसे तो कभी मलसी में नहीं देखा, मगर उस वक़्त से मलसी कभी गई भी तो नहीं। दो-चार नए आदमी आकर बसे ही होंगे।
बटोही चुपचाप कुएँ के पास से निकला। रजिया ने कलसा जगत पर रख दिया और उसके पास जाकर बोली- “रामू महतो ने भेजा है तुम्हें? अच्छा तो चलो घर, मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ। नहीं, अभी मुझे कुछ देर है, बैलों को सानी-पानी देना है, दिया-बत्ती करनी है। तुम्हें रुपये दे दूँ, जाकर दसिया को दे देना। कह देना, कोई काम हो तो बुला भेजें”
बटोही रामू को क्या जाने। किसी दूसरे गांव का रहने वाला था। पहले तो चकराया, फिर समझ गया। चुपके से रजिया के साथ चला गया और रूपए लेकर लम्बा हुआ। चलते-चलते रजिया ने पूछा- “अब क्या हाल है उनका?”
बटोही ने अटकल से कहा- “अब तो कुछ सम्हल रहे हैं”
“दसिया बहुत रो-धो तो नहीं रही है?”
“रोती तो नहीं थी”
“वह क्यों रोएगी..मालूम होगा पीछे”
बटोही चला गया, तो रजिया ने बैलों को सानी-पानी किया, पर मन रामू ही की ओर लगा हुआ था। स्नेह-स्मृतियां छोटी-छोटी तारिकाओं की भाँति मन में उदित होती जाती थीं। एक बार जब वह बीमार पड़ी थी, वह बात याद आई। दस साल हो गए। वह कैसे रात-दिन उसके सिरहाने बैठा रहता था। खाना-पीना तक भूल गया था। उसके मन में आया क्यों न चलकर देख ही आवे। कोई क्या कहेगा? किसका मुँह है जो कुछ कहे। चोरी करने नहीं जा रही हूँ, उस आदमी के पास जा रही हूँ, जिसके साथ पन्द्रह-बीस साल से हूँ। दसिया नाक सिकोड़ेगी। मुझे उससे क्या मतलब?
रजिया ने किवाड़ बन्द किए, घर मजूर को सहेजा, और रामू को देखने चली, काँपती, झिझकती, क्षमा का दान लिए हुए।
क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी “सौत” का अंतिम भाग
~ Premchand Ki Kahani Saut