Malikzada Manzoor Shayari ~ मालिकज़ादा मंज़ूर अहमद (Malikzada Manzoor Ahmed) का जन्म 17 ऑक्टोबर, 1929 को अम्बेडकर नगर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। वो इस दौर के सबसे मशहूर शायरों में से एक हैं। उन्होंने पोयट्री के साथ-साथ प्रोज़ में भी हाथ आज़माया और इसमें भी अच्छी शोहरत हासिल की। उन्होंने कई नॉवल लिखे जिसमें कॉलेज गर्ल भी शामिल है। उनकी शाइरी की किताब शहर-ए-सुख़न 1961 (Shaher e Sukhan) में प्रकाशित हुई। उन्होंने मुशायरों के ज़रिए युवाओं तक अपनी शाइरी को पहुँचाया और उनकी शाइरी को आम-ओ-ख़ास सभी ने बहुत पसंद किया।
उन्होंने कई विश्विद्यालयों में बतौर लेक्चरर पढ़ाया। लखनऊ विश्विद्यालय (Lucknow University Urdu Shayar) में वो उर्दू के प्रोफ़ेसर बने और इसी पोस्ट पर रेटायअर हुए।
मालिकज़ादा को कई अवार्ड्स से नवाज़ा गया। 22 एप्रिल, 2016 को लखनऊ में उनका इंतक़ाल हो गया। वह 86 साल के थे। उनके कुछ बेहतरीन शेर हम यहाँ पेश कर रहे हैं।
‘दिल’ शब्द पर शायरी
एहसास पर बेहतरीन शायरी
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वक़्त शाहिद है कि हर दौर में ईसा की तरह
हम सलीबों पे लिए अपनी सदाक़त आए
रौशन चेहरा भीगी ज़ुल्फ़ें दूँ किसको किस पर तरजीह
एक क़सीदा धूप का लिक्खूँ एक ग़ज़ल बरसात के नाम
न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे
ख़ुद अपने बाग़ को फूलों से डर लगे है मुझे
अजीब दर्द का रिश्ता है सारी दुनिया में
कहीं हो जलता मकाँ अपना घर लगे है मुझे
रस्म-ए-ताज़ीम न रुस्वा हो जाए
इतना मत झुकिए कि सज्दा हो जाए
कुछ ग़म-ए-जानाँ कुछ ग़म-ए-दौराँ दोनों मेरी ज़ात के नाम
एक ग़ज़ल मंसूब है उससे एक ग़ज़ल हालात के नाम
ज़िंदगी में पहले इतनी तो परेशानी न थी
तंग-दामानी थी लेकिन चाक-दामानी न थी
जिन सफ़ीनों ने कभी तोड़ा था मौजों का ग़ुरूर
उस जगह डूबे जहाँ दरिया में तुग़यानी न थी
वही क़ातिल वही मुंसिफ़ अदालत उसकी वो शाहिद
बहुत से फ़ैसलों में अब तरफ़-दारी भी होती है
चेहरे पे सारे शहर के गर्द-ए-मलाल है
जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है
उलझन घुटन हिरास तपिश कर्ब इंतिशार
वो भीड़ है के साँस भी लेना मुहाल है
आवारगी का हक़ है हवाओं को शहर में
घर से चराग़ ले के निकलना मुहाल है
दीवाना हर इक हाल में दीवाना रहेगा
फ़रज़ाना कहा जाए कि दीवाना कहा जाए
दरिया के तलातुम से तो बच सकती है कश्ती
कश्ती में तलातुम हो तो साहिल न मिलेगा
उन्हें ठहरे समुंदर ने डुबोया
जिन्हें तूफ़ाँ का अंदाज़ा बहुत था
देखोगे तो हर मोड़ पे मिल जाएँगी लाशें
ढूँढोगे तो इस शहर में क़ातिल न मिलेगा
जिन सफ़ीनों ने कभी तोड़ा था मौजों का ग़ुरूर
उस जगह डूबे जहाँ दरिया में तुग़्यानी न थी
क्या जानिए कैसी थी वो हवा चौंका न शजर पत्ता न हिला
बैठा था मैं जिस के साए में ‘मंज़ूर’ वही दीवार गिरी
खिल उठे गुल या खिले दस्त-ए-हिनाई तेरे
हर तरफ़ तू है तो फिर तेरा पता किस से करें
अब देख के अपनी सूरत को इक चोट सी दिल पर लगती है
गुज़रे हुए लम्हे कहते हैं आईना भी पत्थर होता है
जौन एलिया के बेहतरीन शेर
महबूबा की तारीफ़ में बेहतरीन शेर
जौन एलिया के बेहतरीन शेर
जुदाई पर शेर
मजाज़ के बेहतरीन शेर..
Malikzada Manzoor Shayari