Shakeb Jalali Shayari Hindi शकेल जलाली उर्दू शायरी के बड़े शायरों में शुमार किए जाते हैं. शकेब की शायरी में जदीदियत का रँग देखने को मिलता है. उनकी दस ग़ज़लें हम यहाँ पोस्ट कर रहे हैं-
ग़ज़ल 1: बद-क़िस्मती को ये भी गवारा न हो सका
बद-क़िस्मती को ये भी गँवारा न हो सका
हम जिस पे मर मिटे वो हमारा न हो सका
रह तो गई फ़रेब-ए-मसीहा की आबरू
हर चंद ग़म के मारों का चारा न हो सका
ख़ुश हूँ कि बात शोरिश-ए-तूफ़ाँ की रह गई
अच्छा हुआ नसीब किनारा न हो सका
बे-चारगी पे चारागरी की हैं तोहमतें
अच्छा किसी से इश्क़ का मारा न हो सका
कुछ इश्क़ ऐसी बख़्श गया बे-नियाज़ियाँ
दिल को किसी का लुत्फ़ गँवारा न हो सका
फ़र्त-ए-ख़ुशी में आँख से आँसू निकल पड़े
जब उन का इल्तिफ़ात गँवारा न हो सका
उलटी तो थी नक़ाब किसी ने मगर ‘शकेब’
दा’वों के बावजूद नज़ारा न हो सका
रदीफ़: न हो सका
क़ाफ़िए: गँवारा, हमारा, चारा, किनारा, मारा, गँवारा, गँवारा, नज़ारा
ग़ज़ल 2: मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन-ढले भी देख
काग़ज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का ए’तिबार ही क्या सूँघ के भी देख
हर चंद राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख
दुश्मन है रात फिर भी है दिन से मिली हुई
सुब्हों के दरमियान हैं जो फ़ासले भी देख
आलम में जिस की धूम थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख
तू ने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब न ढाँप मुझे डूबते भी देख Shakeb Jalali Shayari Hindi
उसकी शिकस्त हो न कहीं तेरी भी शिकस्त
ये आइना जो टूट गया है इसे भी देख
तू ही बरहना-पा नहीं इस जलती रेत पर
तलवों में जो हवा के हैं वो आबले भी देख
बिछती थीं जिस की राह में फूलों की चादरें
अब उसकी ख़ाक घास के पैरों-तले भी देख
क्या शाख़-ए-बा-समर है जो तकता है फ़र्श को
नज़रें उठा ‘शकेब’ कभी सामने भी देख
रदीफ़: भी देख
क़ाफ़िए: हुए, ढले, के, मुझे, फ़ासले, तब्सिरे, इसे, आबले, पैरों-तले, सामने
ग़ज़ल3: आ के पत्थर तो मिरे सहन में दो चार गिरे
आ के पत्थर तो मिरे सहन में दो चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़ज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे
मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरूँ
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गए दिल में उजाले के ख़ुतूत
ये सितारे मिरे घर टूट के बेकार गिरे
क्या हवा हाथ में तलवार लिए फिरती थी
क्यूँ मुझे ढाल बनाने को ये छितनार गिरे
देख कर अपने दर-ओ-बाम लरज़ जाता हूँ
मिरे हम-साए में जब भी कोई दीवार गिरे
वक़्त की डोर ख़ुदा जाने कहाँ से टूटे
किस घड़ी सर पे ये लटकी हुई तलवार गिरे
हम से टकरा गई ख़ुद बढ़ के अँधेरे की चटान
हम सँभल कर जो बहुत चलते थे नाचार गिरे Shakeb Jalali Shayari Hindi
क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा है
संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे
हाथ आया नहीं कुछ रात की दलदल के सिवा
हाए किस मोड़ पे ख़्वाबों के परस्तार गिरे
वो तजल्ली की शुआएँ थीं कि जलते हुए पर
आइने टूट गए आइना-बरदार गिरे
देखते क्यूँ हो ‘शकेब’ इतनी बुलंदी की तरफ़
न उठाया करो सर को कि ये दस्तार गिरे
रदीफ़: गिरे,
क़ाफ़िए: चार, दीवार, पतवार, दीवार, बेकार, छितनार, दीवार, तलवार, नाचार, धार, परस्तार, नाचार, धार, परस्तार, बरदार, दस्तार
ग़ज़ल 4: जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मिरी तरह से अकेला दिखाई देता है
न इतनी तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है
बुरा न मानिए लोगों की ऐब-जूई का
उन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है
ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
वहीं पहुँच के गिराएँगे बादबाँ अब तो
वो दूर कोई जज़ीरा दिखाई देता है
वो अलविदा’अ का मंज़र वो भीगती पलकें
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है
मिरी निगाह से छुप कर कहाँ रहेगा कोई
कि अब तो संग भी शीशा दिखाई देता है
सिमट के रह गए आख़िर पहाड़ से क़द भी
ज़मीं से हर कोई ऊँचा दिखाई देता है
खिली है दिल में किसी के बदन की धूप ‘शकेब’
हर एक फूल सुनहरा दिखाई देता है
रदीफ़: दिखाई देता है
क़ाफ़िए: सहरा, अकेला, पत्ता, साया, प्यासा, जज़ीरा, क्या, शीशा, ऊँचा, सुनहरा
ग़ज़ल 5: कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के
कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के
बदल रहा है जुनूँ ज़ाविए उड़ानों के
ये दिल का ज़ख़्म है इक रोज़ भर ही जाएगा
शिगाफ़ पुर नहीं होते फ़क़त चटानों के
छलक छलक के बढ़ा मेरी सम्त नींद का जाम
पिघल पिघल के गिरे क़ुफ़्ल क़ैद-ख़ानों के
हवा के दश्त में तन्हाई का गुज़र ही नहीं
मिरे रफ़ीक़ हैं मुतरिब गए ज़मानों के
कभी हमारे नुक़ूश-ए-क़दम को तरसेंगे
वही जो आज सितारे हैं आसमानों के
रदीफ़: के
क़ाफ़िए: ज़मानों, चटानों, क़ैद-ख़ानों, ज़मानों, आसमानों
ग़ज़ल 6: जिस दम क़फ़स में मौसम-ए-गुल की ख़बर गई
जिस दम क़फ़स में मौसम-ए-गुल की ख़बर गई
इक बार क़ैदियों पे क़यामत गुज़र गई
धुँदला गए नुक़ूश तो साया सा बन गया
देखा किया मैं उन को जहाँ तक नज़र गई
बेहतर था मैं जो दूर से फूलों को देखता
छूने से पत्ती पत्ती हवा में बिखर गई
कितने ही लोग साहिब-ए-एहसास हो गए
इक बे-नवा की चीख़ बड़ा काम कर गई
तन्हाइयों के शहर में कौन आएगा ‘शकेब’
सो जाओ अब तो रात भी आधी गुज़र गई
रदीफ़: गई
क़ाफ़िए: ख़बर, गुज़र, नज़र, बिखर, कर, गुज़र
ग़ज़ल 7: वहाँ की रौशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
वहाँ की रौशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
मैं उस गली में अकेला था और साए बहुत
किसी के सर पे कभी टूट कर गिरा ही नहीं
इस आसमाँ ने हवा में क़दम जमाए बहुत
न जाने रुत का तसर्रुफ़ था या नज़र का फ़रेब
कली वही थी मगर रंग झिलमिलाए बहुत
हवा का रुख़ ही अचानक बदल गया वर्ना
महक के क़ाफ़िले सहरा की सम्त आए बहुत
ये काएनात है मेरी ही ख़ाक का ज़र्रा
मैं अपने दश्त से गुज़रा तो भेद पाए बहुत
जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत
बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
मुसाफ़िरों को ग़नीमत है ये सराए बहुत
जमी रहेगी निगाहों पे तीरगी दिन भर
कि रात ख़्वाब में तारे उतर के आए बहुत
‘शकेब’ कैसी उड़ान अब वो पर ही टूट गए
कि ज़ेर-ए-दाम जब आए थे फड़फड़ाए बहुत
रदीफ़: बहुत
क़ाफ़िए: ढाए, साए, जमाए, झिलमिलाए, आये, पाए, लाये, सराए, आये, फड़फड़ाए
ग़ज़ल 8: वो सामने था फिर भी कहाँ सामना हुआ Shakeb Jalali Shayari Hindi
वो सामने था फिर भी कहाँ सामना हुआ
रहता है अपने नूर में सूरज छुपा हुआ
ऐ रौशनी की लहर कभी तो पलट के आ
तुझ को बुला रहा है दरीचा खुला हुआ
सैराब किस तरह हो ज़मीं दूर दूर की
साहिल ने है नदी को मुक़य्यद किया हुआ
ऐ दोस्त चश्म-ए-शौक़ ने देखा है बार-हा
बिजली से तेरा नाम घटा पर लिखा हुआ
पहचानते नहीं उसे महफ़िल में दोस्त भी
चेहरा हो जिस का गर्द-ए-अलम से अटा हुआ
इस दौर में ख़ुलूस का क्या काम ऐ ‘शकेब’
क्यूँ कर चले बिसात पे मोहरा पिटा हुआ
रदीफ़: हुआ
क़ाफ़िए: सामना, छुपा, खुला, किया, लिखा, अटा, पिटा
ग़ज़ल 9: क्या कहिए कि अब उस की सदा तक नहीं आती
क्या कहिए कि अब उस की सदा तक नहीं आती
ऊँची हों फ़सीलें तो हवा तक नहीं आती
शायद ही कोई आ सके इस मोड़ से आगे
इस मोड़ से आगे तो क़ज़ा तक नहीं आती
वो गुल न रहे निकहत-ए-गुल ख़ाक मिलेगी
ये सोच के गुलशन में सबा तक नहीं आती
इस शोर-ए-तलातुम में कोई किस को पुकारे
कानों में यहाँ अपनी सदा तक नहीं आती
या जाते हुए मुझ से लिपट जाती थीं शाख़ें
या मेरे बुलाने से सबा तक नहीं आती
क्या ख़ुश्क हुआ रौशनियों का वो समुंदर
अब कोई किरन आबला-पा तक नहीं आती
ख़ुद्दार हूँ क्यूँ आऊँ दर-ए-अहल-ए-करम पर
खेती कभी ख़ुद चल के घटा तक नहीं आती
उस दश्त में क़दमों के निशाँ ढूँढ रहे हो
पेड़ों से जहाँ छन के ज़िया तक नहीं आती
छुप छुप के सदा झाँकती हैं ख़ल्वत-ए-गुल में
महताब की किरनों को हया तक नहीं आती
ये कौन बताए अदम-आबाद है कैसा
टूटी हुई क़ब्रों से सदा तक नहीं आती
बेहतर है पलट जाओ सियह-ख़ाना-ए-ग़म से
इस सर्द गुफा में तो हवा तक नहीं आती
रदीफ़: तक नहीं आती
क़ाफ़िए: सदा, हवा, क़ज़ा, सबा, सदा, सबा, आबला-पा, घटा, ज़िया, हया, सदा, हवा
ग़ज़ल 10: मुझ से मिलने शब-ए-ग़म और तो कौन आएगा
मुझ से मिलने शब-ए-ग़म और तो कौन आएगा
मेरा साया है जो दीवार पे जम जाएगा
ठहरो ठहरो मिरे असनाम-ए-ख़याली ठहरो
मेरा दिल गोशा-ए-तन्हाई में घबराएगा
लोग देते रहे क्या क्या न दिलासे मुझ को
ज़ख़्म गहरा ही सही ज़ख़्म है भर जाएगा
अज़्म पुख़्ता ही सही तर्क-ए-वफ़ा का लेकिन
मुंतज़िर हूँ कोई आ कर मुझे समझाएगा
आँख झपके न कहीं राह अँधेरी ही सही
आगे चल कर वो किसी मोड़ पे मिल जाएगा
दिल सा अनमोल रतन कौन ख़रीदेगा ‘शकेब’
जब बिकेगा तो ये बे-दाम ही बिक जाएगा
इस ग़ज़ल में कोई रदीफ़ नहीं है, ऐसी ग़ज़लों को ग़ैर मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ वाली ग़ज़ल कहा जाता है)
क़ाफ़िए: आएगा, जाएगा, घबराएगा, जाएगा, समझाएगा, जाएगा, जाएगा
शायरी सीखें: क्या होती है ज़मीन, रदीफ़, क़ाफ़िया….
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