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Sharatchandra ki Kahani Vilaasiशरतचंद्र चट्टोपाध्याय, विलासी

Sharatchandra ki Kahani Vilaasi : विलासी- शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
घनी कहानी, छोटी शाखा: शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कहानी “विलासी” का पहला भाग
भाग- 2

(अब तक आपने पढ़ा….किसी गाँव के लड़के की डायरी के पन्नों से गाँव की एक कहानी चल निकली है। उस लड़के का नाम लेखक ने न्याड़ा रखा, जिसका अर्थ है जिसके बाल मुड़े हों। गाँव के जीवन की बात भी होती है वहीं ये बात भी सामने आयी कि गाँव में बच्चों का स्कूल जाना और पढ़ना कितना मुश्किल काम हुआ करता है। बच्चों को स्कूल के लिए पक्का रास्ता दो कोस और कीचड़ और दलदल से भरे रास्ते पार करके पढ़ने जाना पड़ता है। इस कठिन मार्ग से रोज़ गुज़रते हुए भी जो स्कूल तक पहुँच जाते हैं उनके मस्तिष्क में पढ़ाई कितनी आती है ये बता पाना कठिन है, क्यूँकि उनका मन तो रास्तों में ही उलझा हुआ रहता है। उन्हें किताबों का ज्ञान कितना आता है ये तो पता नहीं लेकिन गाँव के रास्तों की बाक़ी जानकारी उन्हें पूरी हो जाती..हर पेड़, हर फल, हर रास्ते के पत्थर तक की जानकारी वो रखा करते। जिस लड़के की डायरी से ये सारी बातें आती हैं वो आगे अपने बारे में बताते हुए कहते हैं कि उन्हें अपनी चालीस बरस की उम्र में ये समझ नहीं आया कि स्कूल का काम क्या है? क्यूँकि जैसी विद्यार्थियों की आदत और पढ़ाई पहले हुआ करती थी वही आज भी उन्हें देखने मिलती है। इसी बीच वो गाँव में रहने वाले एक लड़के मृत्युंजय के बारे में बताते हैं..मृत्युंजय जिसका एक आम और कटहल का बग़ीचा और एक चाचा के सिवा कोई नहीं था लेकिन वो चाचा भी दिन भर मृत्युंजय की बुराई करते न थकता था…अब आगे)

मृत्युन्जय स्वयं ही पकाकर खाता एवं आमों की फ़सल में आम का बग़ीचा किसी को उठा देने पर उसका सालभर खाने-पहनने का काम चल जाता, और अच्छी तरह ही चल जाता। जिस दिन मुलाक़ात हुई उसी दिन देखा, वह छिन्न-भिन्न मैली किताबों को बग़ल में दबाए रास्ते के किनारे चुपचाप चल रहा है। उसे कभी किसी के साथ अपनी ओर से बातचीत करते नहीं देखा-अपितु अपनी ओर से बात स्वयं हमीं लोग करते। उसका प्रधान कारण था कि दुकान से खाने-पीने की चीज़ें ख़रीदकर खिलाने वाला गाँव में उस जैसा कोई नहीं था। और केवल लड़के ही नहीं!कितने ही लड़कों के बाप कितनी ही बार गुप्त रूप से अपने लड़कों को भेजकर उसके पास “स्कूल की फीस खो गई है” “पुस्तक चोरी चली गई” इत्यादि कहलवाकर रुपए मँगवा लेते, इसे कहा नहीं जा सकता। परन्तु ऋण स्वीकार करने की बात तो दूर रही, उसके लड़के ने कोई बात भी की है, यह बात भी कोई बाप भद्र-समाज में क़बूल नहीं करना चाहता-गाँव भर में मृत्युन्जय का ऐसा ही सुनाम था।

बहुत दिनों से मृत्युन्जय से भेंट नही हुई। एक दिन सुनाई पड़ा, वह मराऊ रक्खा है। फिर एक दिन सुना गया, मालपाड़े* के एक बुड्ढ़े ने उसका इलाज करके एवं उसकी लड़की विलासी ने सेवा करके मृत्युन्जय को यमराज के विकराल मुँह में जाने से बचा लिया है।

बहुत दिनों तक मैंने उसकी बहुत-सी मिठाई का सदुपयोग किया था-मन न जाने कैसा होने लगा, एक दिन शाम के अँधेरे में छिपकर उसे देखने गया- उसके खण्डर-से मकान में दीवालों की बला नहीं है। स्वच्छन्दता से भीतर घुसकर देखा, घर का दरवाज़ा खुला है, एक बहुत तेज़ दीपक जल रहा है, और ठीक सामने ही तख़्त के ऊपर धुले-उजले बिछौने पर मृत्युन्जय सो रहा है। उसके कंकाल जैसे शरीर को देखते ही समझ में आ गया, सचमुच ही यमराज ने प्रयत्न करने में कोई कमी नहीं रक्खी, तो भी वह अन्त तक सुविधापूर्वक उठा नहीं सका, केवल उसी लड़की के ज़ोर से।

वह सिरहाने बैठी पंखे से हवा झल रही थी। अचानक मनुष्य को देख चौंककर उठ खड़ी हुई। यह उसी बुड्ढ़े सपेरे की लड़की विलासी है। उसकी आयु अट्ठारह की है या अट्ठाईस की-सो ठीक निश्चित नहीं कर सका, परन्तु मुँह की ओर देखने भर से ख़ूब समझ गया, आयु चाहे जो हो, मेहनत करते-करते और रात-रात भर जागते रहने से इसके शरीर में अब कुछ नहीं रहा है। ठीक जैसे फूलदानी में पानी देकर भिगो रक्खे गये बासी फूल की भाँति हाथ का थोड़ा-सा स्पर्श लगते ही, थोड़ा-सा हिलाते-डुलाते ही झड़ पड़ेगा।

मृत्युन्जय मुझे पहचानते हुये बोला- “कौन न्याड़ा?”

बोला- “हाँ”

मृत्युन्जय ने कहा- “बैठो”

लड़की गर्दन झुकाए खड़ी रही। मृत्युन्जय ने दो-चार बातों में जो कहा, उसका सार यह था कि उसे खाट पर पड़े डेढ़ महीना हो चला है। बीच में दस-पन्द्रह दिन वह अज्ञान-अचैतन्य अवस्था में पड़ा रहा, अब कुछ दिन हुए वह आदमियों को पहचानने लगा है, यद्यपि अभी तक वह बिछौना छोड़कर उठ नहीं सकता, परन्तु अब कोई डर की बात नहीं है।

समाप्त

*माल- बंगाल की एक जाति जो साँप के काटे का इलाज करती है।
(Sharatchandra ki Kahani Vilaasi)

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