Noor Uz Zaman Shayari
क्या क़यामत है कि घर के अंदर
आरज़ू रखते हैं आराम की हम
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एक दिन और रास्ते में रहे
और इक दिन कहीं नहीं पहुंचे
लियाक़त जाफ़री के बेहतरीन शेर…
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एक दिन और हुए यार जवानी से दूर
एक दिन और हुए यार बुढ़ापे के क़रीब
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तूफ़ान में कश्ती है,कश्ती में मगर क्या है
कश्ती में नहीं कुछ भी,ये आंख का धोका है
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ये कौन सा आलम है,कैसा ये नज़ारा है
ताज़ा गुलों का ख़ून शाखों से टपकता है
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इधर भी देख ले औ ख़्वाब देखने वाले
कि तेरी उम्र में मैंने भी ख़्वाब देखे थे
हम सेज पे फूलों की जीते हैं न मरते हैं
वो मौत के बिस्तर पे आराम से सोता है
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इक हूक सी उठती है क्यों धूप की बस्ती में
कतरा के मिरे घर से खुर्शीद गुज़रता है
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तो क्या अब धड़कता नहीं दिल किसी का
वो दिल नाम जिसका मुहब्बत था यारो
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शिकायत करने के तो हौसलें हैं
शिकायत सुनने का जज़्बा नहीं है
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सभी के हाथ में परचम का मतलब
सभी के हाथ कटने जा रहे हैं
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उस उम्र में बहुत थी मुहब्बत की आरज़ू
वो कच्ची उम्र जो कि मुहब्बत की थी नहीं
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खड़े हैं चाय के खोखे पे यार तुम्हारे
अना की कार से क्या तुम उतर नहीं सकते
थक गया हूँ मिरे अल्लाह उठा ले मुझको
देख मजबूरी मिरी,ये भी नहीं कह सकता
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Noor Uz Zaman Shayari