Ain Irfan Shayari ~
उस बस्ती पर मजबूरी का साया था
घर घर में बाज़ारों की आवाज़ें थीं
आँखों में ख़्वाबों ने शोर मचाया था
आसमान पर तारों की आवाज़ें थीं
नज़र बचा के हवाओं से मुस्कुराता है
सफ़ेद फूल दरख़्ते-ख़िजां पे आया हुआ
तिरे ख़्याल कि ख़ुश्बू के इंतेज़ार में है
ये ज़र्द पेड़ तिरे हाथ का लगाया हुआ
ना किसी आँख को हैरत ना किसी दिल में कसक,
सोच कर होता है अफ़सोस यहाँ मैं भी हूँ
सिर्फ़ पानी ही को दरया नहीं कहते प्यारे
है रवानी की अगर बात,रवां मैं भी हूँ
दिखी थी एक झलक सुब्ह के सितारे में
फिर उसके बाद न उतरा कभी ख़ुमार उसका
बदन के बाग़ में फैली हुई महक उसकी,
नज़र के सामने उड़ता हुआ ग़ुबार उसका
दिखी थी एक झलक सुब्ह के सितारे में,
फिर उसके बाद न उतरा कभी ख़ुमार उसका
तिरे इलावा भी लोग उसकी राह तकते हैं,
तू ही नहीं है फ़क़त जो हुआ शिकार उसका
डूबने वाले सफ़ीने की हक़ीक़त जानो
तुम अभी तैर रहे हो तो ग़नीमत जानो
वो अगर संग भी फेके तो इनायत समझो
वो अगर रंज भी दे दे तो मुहब्बत जानो
उदास रंग का मलबूस उसके तन पर था
न जाने कौन से मौसम का बोझ मन पर था
किया वो फ़ैसला दोनों ने आख़िर
जो दोनों के लिए अच्छा नहीं था
हमको आवाज़ ने किया बर्बाद
ख़ामुशी का ये काम था भी नहीं
कोई उम्मीद नहीं थी किसी के आने की
प इंतेज़ार की ख़ुशबू से घर महकता था
Ain Irfan Shayari