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मैं जो हूँ ‘जौन-एलिया’ हूँ जनाब
इसका बेहद लिहाज़ कीजिएगा
जौन एलिया
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सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का
शहरयार
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तिरी आरज़ू तिरी जुस्तुजू में भटक रहा था गली गली
मिरी दास्ताँ तिरी ज़ुल्फ़ है जो बिखर बिखर के सँवर गई
बशीर बद्र
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दश्त जैसी उजाड़ हैं आँखें
इन दरीचों से ख़्वाब क्या झांकें
सिराज फ़ैसल ख़ान
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अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर से पहले
इब्न-ए-इंशा
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इक क़िस्सा-ए-तवील है अफ़्साना दश्त का
आख़िर कहीं तो ख़त्म हो वीराना दश्त का
हसन अज़ीज़
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मैं तुझसे मिलने समय से पहले पहुँच गया था
सो तेरे घर के क़रीब आ कर भटक रहा हूँ
पल्लव मिश्रा
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लाख आफ़्ताब पास से हो कर गुज़र गए
हम बैठे इंतिज़ार-ए-सहर देखते रहे
– जिगर मुरादाबादी
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शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं
वसीम बरेलवी
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अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
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मुहम्मद रफ़ी साहब द्वारा गायी गई ग़ज़लें…
बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था
हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा
शौक़ बहराइची
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कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
मिर्ज़ा ग़ालिब
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तेरा चुप रहना मिरे ज़ेहन में क्या बैठ गया
इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया
तहज़ीब हाफ़ी
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ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते-मिलाते रहिए
निदा फ़ाज़ली
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ग़ैर का इश्क़ है कि मेरा है
साफ़ कह दो अभी सवेरा है
नूह नारवी
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दिल के वीराने में घूमे तो भटक जाओगे
रौनक़-ए-कूचा-ओ-बाज़ार से आगे न बढ़ो
अदा जाफ़री
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कौन इस घर की देख-भाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है
जौन एलिया
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ये एक बात समझने में रात हो गई है
मैं उस से जीत गया हूँ कि मात हो गई है
तहज़ीब हाफ़ी
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केक बिस्कुट खाएँगे उल्लू-के-पट्ठे रात दिन
और शरीफ़ों के लिए आटा गिराँ हो जाएगा
हुसैन मीर काश्मीरी
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ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
अल्लामा इक़बाल
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तू नया है तो दिखा सुब्ह नई शाम नई
वर्ना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई
फ़ैज़ लुधियानवी
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जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी
जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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दिल की बेताबी नहीं ठहरने देती है मुझे
दिन कहीं रात कहीं सुब्ह कहीं शाम कहीं
नज़ीर अकबराबादी
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हिन्दी व्याकरण: बिंदु और चंद्रबिंदु का प्रयोग..
आशिक़ी में ‘मीर’ जैसे ख़्वाब मत देखा करो
बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो
अहमद फ़राज़
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ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या
जौन एलिया
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वो जिसकी छाँव में पच्चीस साल गुज़रे हैं
वो पेड़ मुझसे कोई बात क्यूँ नहीं करता
तहज़ीब हाफ़ी
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कभी तो सर्द लगा दोपहर का सूरज भी
कभी बदन के लिए इक किरन ज़ियादा हुई
नसीम सहर
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हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं
साहिर लुधियानवी
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ऊँची इमारतों से मकाँ मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
जावेद अख़्तर
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ज़रा इक तबस्सुम की तकलीफ़ करना
कि गुलज़ार में फूल मुरझा रहे हैं
अब्दुल हमीद अदम
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सारी दुनिया के ग़म हमारे हैं
और सितम ये कि हम तुम्हारे हैं
जौन एलिया
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ज़ब्त कर-कर के जो बनाया है
ग़म नहीं आदमी का साया है
अरग़वान
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सदा ऐश दौराँ दिखाता नहीं
गया वक़्त फिर हाथ आता नहीं
मीर हसन
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फूल तो फूल हैं आँखों से घिरे रहते हैं
काँटे बे-कार हिफ़ाज़त में लगे रहते हैं
वसीम बरेलवी
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सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को
हाथों में फूल हैं मिरे पाँव में रेत है
तहज़ीब हाफ़ी
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ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
साहिर लुधियानवी
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पुराने साल की ठिठुरी हुई परछाइयाँ सिमटीं
नए दिन का नया सूरज उफ़ुक़ पर उठता आता है
अली सरदार जाफ़री
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कहीं कहीं कोई तारा कहीं कहीं जुगनू
जो मेरी रात थी वो आपका सवेरा है
मीना कुमारी नाज़
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देखे हुए से लगते हैं रस्ते मकाँ मकीं
जिस शहर में भटक के जिधर जाए आदमी
मुनीर नियाज़ी
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हाथ काँटों से कर लिए ज़ख़्मी
फूल बालों में इक सजाने को
अदा जाफ़री
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दश्त की धूप है जंगल की घनी रातें हैं
इस कहानी में बहर हाल कई बातें हैं
जावेद नासिर
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हमसे बढ़ी मसाफ़त-ए-दश्त-ए-वफ़ा कि हम
ख़ुद ही भटक गए जो कभी रास्ता मिला
ज़ेहरा निगाह
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पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
मीर तक़ी मीर
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तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं
कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा
वसीम बरेलवी
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ज़ब्त करना अगर नहीं आता, ग़म ज़माने की जान ले लेते,
सारी दुनिया हमारी दुश्मन थी, हम ज़माने की जान ले लेते
अरग़वान
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बहुत नज़दीक आती जा रही हो
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या
जौन एलिया
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इस डूबते सूरज से तो उम्मीद ही क्या थी
हँस हँस के सितारों ने भी दिल तोड़ दिया है
महेश चंद्र नक़्श
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ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में
जौन एलिया
हमारा दिल तो हमेशा से इक जगह पर है
तुम्हारा दर्द ही रस्ता भटक गया होगा
ज़ुबैर अली ताबिश
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देख लेते जो मिरे दिल की परेशानी को
आप बैठे हुए ज़ुल्फ़ें न सँवारा करते
जलील मानिकपूरी
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अमीर इमाम के बेहतरीन शेर
तिरी तलाश में जाने कहाँ भटक जाऊँ
सफ़र में दश्त भी आता है घर भी आता है
उम्मीद फ़ाज़ली
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राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
मीर तक़ी मीर
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रेत पर थक के गिरा हूँ तो हवा पूछती है
आप इस दश्त में क्यूँ आए थे वहशत के बग़ैर
इरफ़ान सिद्दीक़ी
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ऐ ग़म-ए-ज़िंदगी न हो नाराज़
मुझ को आदत है मुस्कुराने की
अब्दुल हमीद अदम
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प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े
इक़बाल साजिद
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मुमकिन है कि सदियों भी नज़र आए न सूरज
इस बार अंधेरा मिरे अंदर से उठा है
आनिस मुईन
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जानता हूँ एक ऐसे शख़्स को मैं भी ‘मुनीर’
ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं
मुनीर नियाज़ी
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क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उससे जलते हैं
जौन एलिया
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ऐसे भटक रहा है ख़राबे में आदमी
जैसे उसे कभी भी हिदायत नहीं मिली
शहनवाज़ फ़ारूक़ी
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सूरज सितारे चाँद मिरे साथ में रहे
जब तक तुम्हारे हाथ मिरे हाथ में रहे
राहत इंदौरी
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गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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उदासी शाम तन्हाई कसक यादों की बेचैनी
मुझे सब सौंप कर सूरज उतर जाता है पानी में
अलीना इतरत
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दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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आबला-पा कोई इस दश्त में आया होगा
वर्ना आँधी में दिया किस ने जलाया होगा
मीना कुमारी नाज़
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जाने किस मोड़ पे ले आई हमें तेरी तलब
सर पे सूरज भी नहीं राह में साया भी नहीं
उम्मीद फ़ाज़ली
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एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा
परवीन शाकिर
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मुहब्बत रंग दे जाती है जब दिल दिल से मिलता है
मगर मुश्किल तो ये है दिल बड़ी मुश्किल से मिलता है
जलील मानिकपूरी
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मिरे सूरज आ! मिरे जिस्म पे अपना साया कर
बड़ी तेज़ हवा है सर्दी आज ग़ज़ब की है
शहरयार
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कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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वो अंधेरा है कि बुझती हुई आँखें मुझ से
पूछती हैं कि वो आएगा सवेरा होगा
हारिस बिलाल
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यक़ीन चाँद पे सूरज में ए’तिबार भी रख
मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख
निदा फ़ाज़ली
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ये दश्त वो है जहाँ रास्ता नहीं मिलता
अभी से लौट चलो घर अभी उजाला है
अख़्तर सईद ख़ान
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शाम को आओगे तुम अच्छा अभी होती है शाम
गेसुओं को खोल दो सूरज छुपाने के लिए
क़मर जलालवी
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यार क्या ज़िंदगी है सूरज की
सुब्ह से शाम तक जला करना
अमीर क़ज़लबाश
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रात दिल को था सहर का इंतिज़ार
अब ये ग़म है क्यूँ सवेरा हो गया
सलाम मछली शहरी
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हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा
परवीन शाकिर
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तोड़ कर आज ग़लत-फ़हमी की दीवारों को
दोस्तो अपने तअ’ल्लुक़ को सँवारा जाए
संतोष खिरवड़कर
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मिरी हयात है बस रात के अँधेरे तक
मुझे हवा से बचाए रखो सवेरे तक
अनवर शऊर
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लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
उछल रहा है ज़माने में नाम-ए-आज़ादी
फ़िराक़ गोरखपुरी
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ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
शकेब जलाली
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मैं बिखर जाऊँगा ज़ंजीर की कड़ियों की तरह
और रह जाएगी इस दश्त में झंकार मिरी
ज़फ़र इक़बाल
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है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या-रब
हम ने दश्त-ए-इम्काँ को एक नक़्श-ए-पा पाया
मिर्ज़ा ग़ालिब
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दिन में परियों की कोई कहानी न सुन
जंगलों में मुसाफ़िर भटक जाएँगे
बशीर बद्र
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सफ़र में अब के अजब तजरबा निकल आया
भटक गया तो नया रास्ता निकल आया
राजेश रेड्डी
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मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या-रब कई दिए होते
मिर्ज़ा ग़ालिब
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