Diwali Ke Mithkeey Sandarbh ~ (इस लेख को कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र के पंजाबी विभाग के पूर्व प्रोफेसर डॉ.कर्मजीत सिंह ने पंजाबी भाषा में लिखा था, जिसका हिंदी अनुवाद किया है कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग के प्रोफ़ेसर सुभाषचंद्र ने)
दिवाली भारतीयों का विशिष्ट त्योहार है। यह रौशनी का त्योहार है, इसलिए ज्ञान का प्रतीक बन गया है, ज्ञान की अज्ञानता पर जीत का जश्न मनाया जाता है और गहरे अर्थों में मानव के अंदरूनी अंधेरे पर रौशनी की जीत का प्रतीक भी बन गया है। इसको बुराई पर अच्छाई का प्रतीक भी माना जाता है। वास्तव में जब कोई त्योहार लंबे समय तक चलता है तो वह किसी भी संस्कृति में एक से ज्यादा प्रतीक अर्थ ग्रहण कर लेता है। कालांतर में उसके साथ ऐतिहासिक घटनाएँ भी जुड़ जातीं हैं जिस कारण संस्कृति में ऐसा त्योहार और भी महत्व ग्रहण कर लेता है। तेल के दीये जलाने, खरीददारी करने (विशेष तौर पर बर्तनों और गहनों की), मिठाईयां बाँटने, औरतों द्वारा साज-सज्जा करने, रंगोली बनाने और कई तरह के रीति रिवाज़ निभाने और पूजा आदि इस त्योहार की विशेषता हैं।
इस त्योहार के साथ जुड़े दीये संबंधी आज के युग तक अनेक ऐतिहासिक, मिथकीय और लोकधारात्मक संदर्भ जुड़े हुए हैं जिस पर विचार करने के उपरांत ही इस त्योहार के बहुत से अर्थ और महत्व स्पष्ट हो सकते हैं जिसका यहाँ यत्न किया गया है। सबसे पुराना दीया पत्थर में पड़े खड्डे के रूप में मिलता है जिस में तेल और बत्ती डाल कर रौशनी का प्रबंध किया गया। ये दीया ईसा पूर्व 10वीं सदी का माना गया है। इसके अलावा नारियल, सीपों, अंडों के खोल, आटे और धातु विशेष तौर पर पीतल के दीये आम मिलते हैं। ईसा पूर्व आठवीं सदी में कांसे के दीये भी मिलते हैं मिट्टी का पका और गोल दीया ईसा पूर्व चौथी सदी मिलता है इस के बाद इसमें कोना बनाकर बत्ती के लिए जगह बनाई गई है।
दीया भारतीय/पंजाबी लोकधारा का अटूट अंग रहा है। बच्चा जन्म और छिले में 13 दिन दीया जलाया जाता है। आंवल दबने वाली जगह पर भी दीया जलाकर रखा जाता है। रौशनी को शैतानी आत्माओं को दूर रखने का साधन माना जाता है। मनुष्य ने जंगलों में जीवन जीते हुए ही यह अनुभव कर लिया था कि रात को हमलावर जानवर आग के नज़दीक नहीं जाते। जानवरों का अपना अनुभव रहा होगा कि आग जलाती है। इससे यह कल्पना की गई कि अदृष्ट निशाचर भूत-प्रेत आग के नज़दीक नहीं आते। इसी का विस्तार ही दीये की रौशनी से बुरी आत्माओं को दूर रखने का विश्वास बना है इसलिए दीया जलाकर निश्चित किया जाता है कि शुभ कामों में बुरी शक्तियां विघ्न न डाल सकें। मुंडन के समय आटे का दीया जलाया जाता है।
जब मानव ने अनाज के आटे से रोटियाँ बनानीं शुरू की उसके बाद सख़्त आटे के दीये बनाने का प्रचलन संभव हुआ। मृत व्यक्ति के हाथ पर आटे का दीया रखकर मंत्र उच्चारण किये जाते हैं और माना यह जाता है कि अंधेरे रास्तों पर यह रौशनी बिछड़ी हुई आत्मा को राह दिखाने में सहायक होगी। मरने के बाद दस दिन पीपल के नज़दीक दीया जलाया जाता है। इन दिनों में श्मशान में दीया जलाने का रिवाज़ भी है। आटे का दीया जन्म और मौत साथ जुड़ गया है और मिट्टी का दीया ख़ुशी के मौके पर जलाया जाता है।
विवाह की रस्म तो दीये बिना सोची ही नहीं जा सकती। बटना लगाते समय आटे और हल्दी का चौक बनाकर लकड़ी का पटड़ा उस पर रखा जाता है। लड़के को पटड़े पर बिठाकर पूर्व की तरफ मुँह करके देहरे (दीये रखने की जगह, छोटा सा मंदिर जैसा) के सामने बिठाया जाता है। भाई दूज पर भी बहन भाई को पूर्व की तरफ मुँह करवाकर मुँह मीठा करवाती है। इससे सूरज और दीये का सम्बन्ध भी स्पष्ट हो जाता है कि दीया सूरज का प्रतीक ही है।
दीया जीवन का प्रतीक है इसलिए दीये का बुझने का अर्थ है जीवन की समाप्ति। सैंकड़ों कथाओं में दीया बुझने का अर्थ किसी की मौत से ही लिया जाता है। काले जादू में इसीलिए मंत्रों के साथ सात बार दीये को बुझाने का अर्थ है दुश्मन की मौत या उसका नुक्सान। इसीलिए ‘दीया बुझाना’ नहीं बल्कि ‘दीया बढ़ाना’ कहा जाता है। दीया जलाने और बढ़ाने के संबंध में बोले जाने वाले शब्दों से भी लोक विश्वास और मानताएं स्पष्ट हो जातीं हैं।
दीवट दीवड़ा बल्ले
सत्तर सौ बला टले
दीवट घी की बत्ती
घर आए बहुती खट्टी।
दीया जलने से बलाएं टलती हैं और घी के दीये जलने से घर में ख़ुशहाली आती है। यह दोनों इच्छाएं एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह मानव की शाश्वत इच्छाएं और ज़रूरतें भी हैं। इसी तरह दीया जलाने के संबंध में बोले जाने वाले शब्द बड़े गहरे अर्थ रखते हैं।
जा दिवया घर अपणे तेरी माँ उड़ीके वार।
आईं हनेरे जाईं सवेरे, सभै सगन विचार।
जा दिवया घर अपणे सुख वसाईं रात। रिज़क ले आईं भाल के, तेल ले आईं नाल।
दीया यहाँ कोई बेजान चीज़ नहीं है बल्कि किसी माँ का बेटा है, माँ जिसका घर में इन्तज़ार कर रही है। सुख व आर्थिक ख़ुशहाली की प्रार्थना है। इन पंक्तियों में चार चीजों का ज़िक्र किया गया है। दीया, तेल (घी), बत्ती और दीवट (जिस पर दीया रखा जाता है)। तेल का ज़िक्र आता है तो शोधार्थी का ध्यान तिलों से निकले चिकनाई वाले तरल पदार्थ की तरफ जाता है। आमतौर पर इस तथ्य की तरफ ध्यान ही नहीं गया, क्योंकि हमारे लिए तेल का अर्थ है सरसों का तेल। परन्तु काहन सिंह नाभा को इसका ज्ञान था जिसकी ओर हमने ध्यान ही नहीं दिया।
भाई काहन सिंह नाभा अनुसार, “तेल -तिल का विकार। तिलों की चिकनाई। सबसे पहले तिलों में से यह पदार्थ निकाला इसलिए नाम तेल हुआ। अब सरसों (सरसों) आदि के रस को भी तेल ही कहते है।’ तेल जले बाती ठहरानी'(आसा कबीर) श्वास तेल आयु बत्ती। ‘दीपक बांधित धर्यु बिन तेल ‘(कबीर) भाव ज्ञान दीपक भाई काहन सिंह नाभा को भाषा विज्ञान के उस नियम का सहज ज्ञान है जिसे अर्थ विस्तार कहा जाता है। स्याही का अर्थ है काली परन्तु बाद में नीली, लाल और हरे और कई और तरह के लिखने में काम आने वाले तरल पदार्थ को भी स्याही कहा जाने लगा। इसी तरह तिलों से निकला पदार्थ तेल जो बाद में सरसों का तेल, जबरंडी का तेल और मिट्टी का तेल भी बन गया।
“तिलों के बीज को सबसे पुराना बीज माना गया है। इसको 5000 साल पुराना माना जाता है। भारतीय मिथक के अनुसार तिल अमर होने का प्रतीक है। महाविष्णु की स्त्री महा श्रीदेवी में भी तिलों के गुण हैं। घी के बाद तिलों को सबसे पवित्र माना गया है। अथर्ववेद के अनुसार अग्नि देवता मांसाहारी पिशाचों और राक्षसों को दूर भगाता है। ऐसा करने के लिए यज्ञ में अग्नि देवता को देसी घी और तिलों के तेल की आहूति दी जाती है। असीरियन मिथक के अनुसार संसार रचने के लिए इकठ्ठा हुए देवताओं ने तिलों से बनी शराब का सेवन किया। एक भारतीय मिथक अनुसार तिल का पौधा विष्णु के बालों में उगा। इसके बीज धरती पर गिरे तो इसकी खेती आरंभ हुई। यह भी माना जाता है कि सबसे पहले तिलों की खेती पार्वती ने शुरू की। पार्वती तिलों के तेल का वटना लगाती था।
तिलों को संतान उत्पति का साधन माना जाता है इसीलिए विवाह के बाद लड़की के ससुराल में ‘तेल मेथरे’ की रस्म की जाती है। चूड़ी बेचने वाला, बेदी तिलों से जुड़े टोनो का ज़िक्र करते हुए बताता है कि संतान प्राप्ति के लिए निस्संतान को 40 दिन 40 घरों से तिल लाकर खिलाए जाते हैं। बेदी यह भी बताता है कि माघ के पहले दिन तिल का वटना लगाया जाता है, तिल के पानी साथ स्नान किया जाता है, तिलों का पानी पिया जाता है, तिलों का फांका मारा जाता है, तिलों का हवन किया जाता है और तिल लड्डू -तिल-शकरी दान की जाती है। मृतक के लिए तिल का पिंडदान किया जाता है, सती होने पर स्त्री के हाथ में तिल भी रखे जाते हैं। काले तिलों का टोना करके दुश्मन को खिलाकर अपना ग़ुलाम बनाए जाने का विश्वास माना जाता है।
वास्तव में तिल का बीज सिंध घाटी में भी मिलता है यहाँ से इसके जले हुए बीज प्राप्त हुए हैं (3500 -3050 ईसा पूर्व) और माना जाता है कि इनकी खेती यहाँ से ही शुरू हुई। यह भी माना जा सकता है कि तिलों के तेल का दीया भी सबसे पहले यहीं जला क्योंकि कपास भी यहीं मिली है और मिट्टी का दीया भी। पार्वती द्वारा खेती शुरू करने का मिथक भी इधर ही इशारा करता है क्योंकि शिव सिंध घाटी का देवता है। सिंध घाटी की सभ्यता में तिलों के बाद सरसों भी प्राप्त होती है। यह तिळों के बाद में (1800 ईसा पूर्व) प्राप्त होती है। आज के दिन भी यह पूरे भारत में प्रचलित है। आर्यों के आने साथ तिलों की जगह घी ने ले ली जो हवन में आम इस्तेमाल किया जाता था परन्तु इससे तिलों का महत्व किसी तरह भी कम नहीं हुआ। सरसों और सरसों के तेल को बुरी अदृश्य आत्माओं से बचाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। ईल बलाओं को दूर रखने के लिए गर्भवती की खटिया के किनारे जहाँ चावल और लोहा के साथ सरसों भी बाँधी जाती है। ख़ुशी के मौके पर बाहर से आने वाले को तेल डालकर स्वागत करने के पीछे भी यही भावना काम करती है। शनि के प्रकोप को दूर करने के लिए सरसों के तेल का दान किया जाता है। आर्य सभ्यता चरवाहा सभ्यता थी इसलिए यहाँ मक्खन से बना घी पवित्र माना गया। घी के दीये जलाना मुहावरा ख़ुशी के इज़हार करने का सूचक है। तिब्बत के बुद्ध धर्म के मन्दिरों में याक के दूध से बने घी के दीये जलाए जाते रहे हैं।
दीये, तेल/घी के बाद आती है बत्ती। इन तीनों के मिलने साथ ही दीया-बत्ती करने का विचार पैदा होता है। सिंध घाटी और ऐसकमो की सभ्यता में 5000 ईस्वी पूर्व कपास के अंश मिलते हैं। सिंध घाटी की सभ्यता के विस्तार मेहरगढ़ और राखीगढ़ी से भी कपास का पता चलता है। कहा जा सकता है कि सिंध घाटी की सभ्यता में दीये के साथ रौशनी करने का आरंभ हो चुका था। यहाँ तिलों का/ सरसों का तेल भी है, कपास भी है और मिट्टी का दीया भी। आर्यों के आने साथ घी के कारण इसका संस्कृति में इसका ओर भी महत्व बढ़ गया। यज्ञों के साथ साथ दीया जलाने का प्रचलन भी रहा है। इससे जुड़े विश्वासों, रस्मों-रिवाज़ों और प्रतीकों का विकास भी होता रहा है।
पुरातन भारतीय साहित्य में भी इसीलिए दियों और दीपमाळा के बारे चर्चा होती रही है। पहली सदी ईस्वी में लिखे गए पद्म और स्कन्द पुराण में दीये का ज़िक्र मिलता है। स्कन्द पुराण में दीया सूरज का प्रतीक है जो जीवन को रौशनी और शक्ति देता है। कठ उपनिषद में, हर्ष के नाटक (7 वीं सदी) नागानन्द में ‘दीप प्रदीप’ उत्सव का वर्णन है। संभव है कि यह आश्विन के आखिरी दिन अमावस को ही मनाया जाता हो। 11वीं सदी में अलबरूनी के वर्णन में कार्तिक महीना की प्रथमा को दीप जलाने की सूचना दी गई है। इस उत्सव में शोर-शराबा करने का रिवाज़ रहा है जो बाद में बारूद के आने के साथ पट्टाखे चलाने में तबदील हो जाता है। शोर-शराबा करने के पीछे बुरी आत्माओं को दूर रखने का विश्वास काम करता है। वैसे ही जैसे रौशनी इनको दूर रखती है।
दिवाळी को मनाए जाने के अनेकों कारण गिनाए जाते हैं वास्तव में इस त्योहार के साथ ऐतिहासिक व पौराणिक घटनाएँ जुड़तीं गई और अनेक विश्वासों ने इस त्योहार को बहुआयामी बना दिया है। आज के दौर में हिंदू, जैन, बुद्ध धर्म के अनुयायी और सिक्ख अपने-अपने कारणों से इस उत्सव को महत्व देते हैं। वर्तमान में जश्न मनाने के ढंग में व्यापारिक हित भी जुड़े हुए हैं 20वीं सदी के आरंभ में धार्मिक पुनर्जागरण के साथ जुड़ा है। इसी समय, गणेश उत्सव जैसे नये उत्सव भी अस्तित्व में आते हैं।
आम धारणा यह है कि इस दिन राम, लक्ष्मण और सीता चौदह साल के बनवास के बाद अयोध्या वापिस लौटे। उन की वापसी की ख़ुशी में सारी अयोध्या नगरी में दीपमाला की गई जो कालांतर में पूरे भारत तक फैल गई। यह रामायण का सुखांत अध्याय है। रामायण की कथा हम सबकी मानसिकता का हिस्सा है इसलिए यहाँ इसको दोहराने की ज़रूरत नहीं। यह भी कहा जाता है कि इस दिन अज्ञातवास का समय ख़त्म होने पर पांडव अपने राज में वापस आए थे। इस ख़ुशी में दीपमाला की गई। पहला प्रकरण रामायण से सम्बन्धित है, तो दूसरा महाभारत से। सबसे पुरातन विचार यह प्रतीत होता है कि देवताओं और दैत्यों की तरफ से समुद्र-मंथन के समय निकले चौदह रत्नों में से एक लक्ष्मी थी, दिवाळी इसके जन्म की ख़ुशी का ही रूप है। परन्तु यहाँ भी एक समस्या है कि लक्ष्मी की पूजा तभी संभव हो सकती है जब वह धन की प्रतीक बन जाती है और प्रतीक बनने की संभावना तभी हो सकती है जब वस्तु-विनिमय का स्थान रुपया-पैसा ले ले। यह सब तभी संभव हुआ जब राजाओं ने सिक्के ढाले। लक्ष्मी के अलावा तेरह रत्न ओर समुद्र-मंथन से निकले माने जाते हैं, वह हैं – श्रवा घोड़ा, कामधेनु गाय, कल्प वृक्ष, रंभा, अप्सरा, अमृत, कालकूट (ज़हर), शराब (सुरा), चंद्रमा, धन्वंतरि, पांचजन्य शंख, कौसभ मणी, सारंग धनुष और ऐरावत हाथी। यह भी माना जाता है कि इस दिन लक्ष्मी ने विष्णु को अपना वर चुना, इसलिए इस दिन को शुभ माना जाता है। एक मिथक यह भी है कि इस दिन विष्णु लक्ष्मी के पास वापस बैकुंठ गए, इसलिए भी यह ख़ुशी का समय है।
गुजरात में इस दिन से नये दिन की शुरुआत मानी जाती है इस दिन कुबेर की पूजा की जाती है जो बही-खातों में हिसाब-किताब रखने वाला माना जाता है। बाद में कुबेर अमीर आदमी का प्रतीक बन जाता है। कई स्थानों पर इस दिन संगीत, साहित्य या शिक्षा की देवी सरस्वती की पूजा भी की जाती है। उड़ीसा और बंगाल में इस दिन काली की पूजा को मान्यता मिलती है। इन प्रदेशों में इस पूजा का महत्व दिवाळी से किसी तरह भी कम नहीं है। दिवाळी का त्योहार कई दिनों तक चलता है एक दिन गोवर्धन पूजा भी की जाती है। यह पूजा कृष्ण के क्षेत्र ब्रज में विशेष तौर पर की जाती है। मिथक है कि इंद्र के प्रकोप के कारण लोग जब बहुत दुखी हुए तो कृष्ण ने सबसे छोटी उंगली पर गोवर्धन धारण करके लोगों को उसके नीचे पनाह दी और इंद्र का अभिमान तोड़ा।
एक तथ्य हमेशा याद रखना ज़रूरी है कि कई त्योहारों का आरंभ पूर्व ऐतिहासिक काल से ही हुआ होता है परन्तु जब नये आंदोलन उभरते हैं या नये धर्म अपनी अलग पहचान बना रहे होते हैं तो पुराने त्योहारों को नये संदर्भ दिए जाते हैं। पुराने ग्रंथों की जगह नये ग्रंथ स्थापित किये जाते हैं, पुराने तीर्थ स्थानों की जगह नये तीर्थ स्थान अस्तित्व में आते हैं। कई बार नये साल भी यहाँ से ही शुरू होते हैं। कई बार इन त्योहारों के साथ ऐतिहासिक घटनाएँ भी जुड़ जातीं हैं।
जैनों के अनुसार दिवाळी वाले दिन 24वें तीर्थांकर महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ था इसलिए वे यह दिन पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं। वह ‘निर्वाण लड्डूयों’ का प्रशाद बाँटते हैं। वे यह भी मानते हैं कि इसीदिन ही महावीर के प्रमुख पैरोकार स्वामी गौतम को गंभीर ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। बुद्ध धर्म के अनुयायियों के अनुसार इसी दिन कालिंग का युद्ध जीतने के बाद ख़ून खराबे से मुँह मोड़ कर अशोक ने बुद्ध धर्म धारण किया था।
सिक्खों में दिवाळी का अपना अलग महत्व है। सिक्खों में बाबा बूढ़ा ने इस त्योहार को मनाने की शुरुआत की। भाई काहन सिंह नाभा के अनुसार, “दीपमालिका, दीपावली कार्तिक महीना का त्योहार है। हिंदू मत में यह लक्ष्मी पूजा करने का पर्व है। सिक्खों में इस दिन दीये जलाने की रस्म बाबा बूढ़ा जी ने चलाई क्योंकि गुरू हरगोबिन्द साहब दिवाळी के दिन ग्वालियर के किले से अमृतसर जी पधारे थे। इस ख़ुशी में रौशनी की गई। यह माना जाता है कि जब गुरू हरगोबिन्द साहब को ग्वालियर से रिहा करने का हुक्म दिया गया तो अन्य 52 राजाओं ने भी गुरू से अपनी रिहाई की विनती की। गुरू हरगोबिन्द ने तत्कालीन राजे के सामने अपनी रिहाई के लिए यह शर्त रखी कि वह राजाओं के साथ ही रिहाई ले सकते हैं। राजा की तरफ से कहा गया कि, ‘जितने राजे गुरू का दामन पकड़ कर बाहर आ सकते हैं, आ जाएँ’। कहते हैं कि इसलिए बावन कलियों वाला चोला बनाया गया। हर राजा एक एक कली पकड़ कर बाहर आ गया इसीलिए गुरू हरगोबिन्द को ‘बंदी छोड़’ की पदवी दी गई और दिवाळी को ‘बंदी छोड़ दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है।
मूल रूप में दिवाली भारतीय त्योहार है जो देसी महीने आश्विन की आखिरी रात को मनाया जाता है। यह तभी संभव था जब विक्रमी साल आरंभ हो गया हो। यह शुरू होता है 57 ईसा पूर्व को। इसके बाद ही महीनों के अच्छे-बुरे होने का विचार भी सामने आता है। चांद आधारित महीनों को चन्द्रायण यानी चढ़ाव को अच्छा समझा जाने लगा और उतरायण को यानी चांद के घटाव को बुरा माना जाने लगा। अंतिम दिन को परिवर्तन का समय मानकर संधि के समय कई रीति-रस्में की जाने लगीं। आश्विन महीने के आखिर के साथ भी कई विश्वास जुड़ते गए। आज तो ये दिन व्यापारिक तौर पर बेहद लाभकारी हो गए हैं। पूरे भारत के संदर्भ में देखें तो यह पर्व पाँच दिन तक चलता है। नेपाल व कई और स्थानों पर यह सात दिन तक जारी रहता है।
दिवाळी का त्योहार आश्विन की तेरहवीं से आरंभ होता है। इसको ‘धनतेरस’ कहा जाता है यह दिन वास्तव में धन्वंतरि वैद्य का दिन है जिस दिन इस की पूजा की जाती है। यह वही धन्वंतरी वैद्य है जो समुद्र-मंथन के समय एक रत्न के तौर पर निकला था। धन्वंतरी वैद्य को देवताओं का वैद्य माना जाता है और औषधि शास्त्र का आरंभकर्ता भी इसी को मानते हैं। “आयुर्वेद वाले धनतेरस को इसकी जन्म तिथ मनाते हैं और इस त्योहार का नाम धन्वंतरी के नाम पर धनतेरस पड़ा। कई कहते हैं कि धनतेरस को नया बर्तन खरीदने से घर में रोग नज़दीक नहीं फटकता। धन्वंतरी ने ही आयुर्वेद की रचना की। धन्वंतरी की पूजा इसलिए की जाती है कि इस के साथ बीमारियाँ दूर रहती हैं। परन्तु अब तो धनतेरस का अर्थ बर्तन और गहने ख़रीदना ही रह गया है जिसे शुभ माना जाता है। शुद्ध व्यापारिक दिन।
14वीं को नरकचतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है। महाभारत अनुसार एक बार नरकासुर दैत्य ने घोर तपस्या की। वह दूसरे दैत्यों की तरह ही इंद्र का राज प्राप्त करना चाहता था। इंद्र ने राज के छिनने के डर से विष्णु को याद किया। ब्रह्म पुराण के मुताबिक इंद्र ने कृष्ण को कहा कि, “भौमासुर (नरकासुर) अनेक देवताओं को मार चुका है लड़कियों से जबरदस्ती करता है। उसने अदिति और अंमृतसरावी नाम के दिव्य कुंडल ले लिए हैं अब मेरा ऐरावत (हाथी) भी ले लेना चाहता है। उससे रक्षा करो।” कृष्ण ने विश्वास दिलाया और नरकासुर पर हमला किया। सुदर्शन चक्र से उसके दो टुकड़े कर दिए और दैत्यों को मार दिया।” कईयों के अनुसार नरकासुर का वध कृष्ण की पत्नी सत्यभामा ने किया। नरकासुर के मरने की ख़ुशी नरकासुर चतुर्थी को दीये जलाकर की जाती है। इस दिन तिलों का ख़ुश्बूदार तेल मलकर नहाया जाता है। औरतें हाथों पर मेहंदी रचाती हैं। इस दिन गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती और कुबेर की पूजा भी की जाती है। इस तरह ये दिन धन-प्राप्ति, बल-प्राप्ति, विद्या प्राप्ति, और नये खाते खोलने के रूप में मनाया जाता है।
आश्विन महीने का आखिरी दिन या अमावस का दिन ही दिवाळी का असली दिन है। सारी रात दीये जलाए जाते हैं। घर के दरवाज़े खुले रखे जाते हैं जिससे लक्ष्मी आए तो पलट कर न जाए। आम बातों में हम पैसे को ‘हाथों की मैल’ ही कहते हैं परन्तु लक्ष्मी (धन) और कुबेर की पूजा पूरी दुनिया में हमारे ही हिस्से में आई है। मिठाइयां बाँटी जातीं हैं। दीये जलाते समय बड़े बुजुर्गों को दीये-मनसे (संकल्प) जाते हैं। एक दीया श्मशान में बड़ों के नाम का रखा जाता है। धार्मिक स्थानों पर दीये रखे जाते हैं। शुरू में बुरी बलाओं को दूर भगाने के लिए ऊंची आवाज़ें निकालीं जातीं थीं परन्तु बाद में इनकी जगह पटाख़ों ने ले ली परन्तु शोर पटाख़ों के साथ भी बरकरार है। स्टेटस का प्रदर्शन करने के लिए भी करोड़ों के पटाख़े फूँके जाते हैं। समुद्र-मंथन में से निकला एक रत्न सूरा (शराब) भी खूब उड़ती है। मांसाहारी के लिए यह महाप्रसाद छकने का त्योहार बन जाता है। जुआ खेलना भी पवित्र माना जाता है। कई जगह परिवार जुए में अपने बड़े को जिताते हैं जिससे सारा साल पैसा आता रहे।
गुजराती मारवाड़ियों के लिए कार्तिक महीने की पहली तारीख़ से नये साल का आरंभ होता है। नये साल के आरंभ को पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। कई स्थान पर प्रथमा के त्योहार को ‘दिवाळी पड़वा’ भी कहा जाता है। जो वास्तव में पति-पत्नी का त्योहार माना जाता है। दोनों एक दूसरे को विशेष तौर पर पति पत्नी को महंगे उपहार ले कर देता है। इस दिन गोवर्धन पूजा के साथ साथ विश्वकर्मा का दिन भी मनाया जाता है। विश्वकर्मा को देवताओं के भवन-निर्माण करने वाला देवता माना जाता है परन्तु कारीगर वर्ग ने इसे अपना इष्ट माना है। कई स्थान पर विश्वकर्मा को ब्रह्मा का पुत्र कहा गया है। वह लकड़ी, लोहे के कारीगरों, भवन निर्माणकर्ताओं और मज़दूरों का देवता माना जाता है। शत्तपथ वेद की रचना उसी की मानी जाती है। उसके चार हाथों की कल्पना की गई है, जिनमें घड़ा, किताब, रस्सी और कारीगरी के यंत्र दिखाए गए हैं। माना जाता है कि विश्वकर्मा ने सत्तयुग में स्वर्ग लोग (या इंद्र लोग), त्रेता युग में सोने की लंका, द्वापर युग में हस्तिनापुर और कलयुग में इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया। इस दिन समस्त कारीगर वर्ग अपने औजारों की पूजा करता है और आने वाले साल के लिए अपने काम में वृद्धि की कामना करता है। इस दिन कोई काम नहीं किया जाता। जसवंत सिंह विर्दी ने विश्वकर्मा के जीवन पर आधारित एक उपन्यास की रचना भी की जिसका नाम है “निश्चल नाहीं चित” जो अपनी तरह का मिथकीय उपन्यास है।
कार्तिक के महीना की दूज के त्योहार को बड़ा भाई-दूज, भैय्या-दूज या फिर टीका भाई दूज कहा जाता है। “स्कन्द पुराण में कहा गया है कि जो बहन भाई दूज के दिन भाई को टीका लगा कर भोजन करवाती है वह कभी विधवा नहीं होती।” बंजारा बेदी ने पुराणों की एक ओर कथा का भी ज़िक्र किया है। एक बार कार्तिक महीना के शुक्ल पक्ष की दूज को यमराज अपनी बहन यमुना के घर गया। बहन ने उसको टीका लगा कर भोजन कराया। यमराज ने बदले में बहन को कुछ मांगने के लिए कहा। यमुना ने यमराज से हर साल उसके घर आने का वचन लिया। यहाँ से ही पर्व का नाम भाई-दूज पड़ गया। इसीलिए कई जगह इस दिन यमराज और चित्र गुप्त की पूजा भी की जाती है। विलियम क्रुक ने इस मिथक को वेद की यम-यमी सूत्र वाली मिथक के साथ जोड़ा है और दोनों को जोड़े बहन भाई माना गया है। (पृ -347) अब यह पर्व बहन भाई के प्यार का प्रतीक है जो हिंदू क्षत्रीय परिवारों तक ही सीमित है। इस दिन बहनों को विशेष तौर पर बुलाया जाता है। उनको तोहफ़े भी दिए जाते हैं।
नेपाल में दिवाळी का पर्व आश्विन के शुक्ल पक्ष 12वीं से शुरू हो कर कार्तिक महीना दूज तक चलता है। 12वीं को ‘कौआ तुहार’ मनाया जाता है। इस दिन कव्वे को खाना खिलाया जाता हैं। 13वीं को मनाए जाने वाले त्योहार को ‘कुकुर त्योहार’ कहा जाता है जिस पर कुत्तों के लिए भोजन परोसा जाता है। ‘गाय गोरू त्योहार’ 14वीं का त्योहार है। इस दिन गाएँ, घोड़ों और बैलों को सजाया जाता है और उनको अन्न आदि खिलाया जाता है। इन सभी त्योहारों के पीछे क्या विश्वास या मान्ताएं और कथाएं जुड़ी हैं, यह एक अलग शोध का विषय है। 15वीं को लक्ष्मी की पूजा होती है जो नेपाली साल का आख़िरी दिन भी है। नये वर्ष में कार्तिक की प्रथमा को नेवारी लोग ‘महा पूजा’ करते हैं। कार्तिक की पहली को ‘देह-पूजा’ की जाती है। इसका मंतव्य सभी साल के लिए शरीर तंदरुस्ती की कामना करना है। देह-पूजा अपने आप में भौतिकवादी सोच में से ही पैदा होती है। अगर देह स्वस्थ नहीं तो मानसिकता भी स्वस्थ नहीं रह सकती। देह बिना दिल, दिमाग़ और आत्मा की कल्पना ही नहीं की जा सकती। नेपाल में यह त्योहार लोहड़ी और तीज के मेल जैसा त्योहार है। झूले झूले जाते हैं। लड़के-लड़कियाँ नाचते-नाचते घर-घर जा कर फल और पैसे इकठ्ठा करते हैं।
नेपाल के बाद दिवाळी वाले दिन को उड़ीसा में अलग ढंग से साथ मनाया जाता है। कपास, नमक, सरसों जड़ें, हलदी और जंगली घास से रंगोली बनाई जाती है और उसके बीच प्रसाद रखकर उस पर दीया रखा जाता है। दीया सन (पटसन) की डंडियों से बनाया जाता है और इसमें कपड़े की बत्ती डाली जाती है। पुरखों को खुश करने के लिए ‘तर्पण’ पूजा की जाती है। घर सामने बाँस गाड़कर मिट्टी के बर्तन में दीया रखकर टाँगा जाता है। घेरा बनाकर हाथ में जलते सन की डंडियों को आसमान की तरफ लहराते हुए गीत गाए जाते हैं। इनका भाव कुछ इस तरह होता है कि, ‘पुरखों शाम के अंधेरो में आओ हमने आपके रास्ते रोशन कर दिए हैं’ दिवाळी और भारत के कई भागों में पुरखों के नाम के दीये जलाए जाते हैं परन्तु उड़ीसा में यह दिन पुरखों की पूजा के लिए ही आरक्षित है। देश के कुछ ओर भागों में कई भिन्नताएं भी मिलती हैं जैसे महाराष्ट्र में 12वीं तारीख को गाय और उसके बछड़ों की आरती की जाती है। यह माँ-बेटे का दिन के रूप में जाना जाता है। इसी तरह कार्तिक की प्रथमा को पति-पत्नी का दिन मनाया जाता है। जिसको ‘बाली प्रतिपादका’ का नाम दिया गया है। आंध्र प्रदेश में नरकासुर का पुतला जलाया जाता है। रामलीला की तरह कृष्ण या सत्याभामा ने कलाकार पुतले को आग देता है। कोंकण /गोआ में बेरों को पैरों नीचे मथा जाता है। गुजरात में उत्सव 11वीं से शुरू हो जाता है और कार्तिक महीना की पाँचवी को ‘लाभपंचम’ उत्सव मनाया जाता है। दुनिया के जिस हिस्से में भारतीय गए हैं वहीं दिवाळी का पर्व दीये जला कर या एक जगह इकठ्ठे होकर आतिशबाज़ी करके ख़ुशी का माहौल बना लेते हैं।
कुल मिलाकर दिवाली भारत का सब से महत्वपूर्ण त्योहार है जिसको नेपाल तक और सारे संसार में जहाँ भी भारतीय गए हैं वहाँ मनाया जाता है। समकालीन समाज में अन्य त्योहारों की तरह ही दिवाली का भी व्यापारीकरण हो गया है। धनतेरस से लेकर टीका भाई-दूज तक बड़ी-छोटी देशी-विदेशी कंपनियाँ लोगों को लुभाने में कोई कसर बाकी नहीं रहने देती। कर्ज देकर किश्तों में हर चीज़ बेची जाती है। इस भागदौड में मोह, श्रद्धा सब ग़ुम खो जाते हैं।
उपरोक्त विचार एक और बात भी स्पष्ट करते हैं कि त्योहारों को समझने के लिए ऐतिहासिक, पौराणिक, विश्वासों -मान्ताओं के संदर्भ ज़रूरी हैं जिससे मानव-मानसिकता के विकास को समझा जा सकता है। इन त्योहारों के पीछे वैज्ञानिकता ढूँढना या विज्ञान के आधार पर इनको मूलत: रद्द करना भी अतिवादी प्रवृत्ति होगी। नृविज्ञान और लोकधारा शास्त्र ही हमारी समझ को ओर समृद्ध बना सकते हैं। इन त्योहारों को मनाने के पीछे मानवीय सत्य यह है कि मानव लगातार काम के गधीगेड़ (व्यर्थ के काम) में ऐसे त्योहारों पर सामूहिक तौर पर ख़ुशी मना कर भावी संघर्षपूर्ण जीवन जीने की तैयारी करता है और मानसिक और आत्मिक तृप्ति करके साथ-साथ पारिवारिक ज़िम्मेवारियां निभाने और मोह मोहब्बत प्रकट करने के अवसर भी पैदा करता है। सामूहिकता इन त्योहारों की जान है।
(इस लेख में शामिल सभी विचार लेखक के अपने हैं साहित्य दुनिया इन विचारों की पुष्टि नहीं करता)
~ Diwali Ke Mithkeey Sandarbh