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चंद पंक्तियाँ रोज़ाना

बैठे-बिठाए हो गई घर में मार-कुटाई चार बजे
मेरे बुज़ुर्गों ने मुझको तहज़ीब सिखाई चार बजे
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दुआ ने काम किया
अम्मी और अब्बा ने मिल कर मेरा काम तमाम किया
आज मुहल्ले-भर में गूँजी मेरी दुहाई चार बजे
मेरे बुज़ुर्गों ने मुझको तहज़ीब सिखाई चार बजे
नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
कितनी ख़ुशी से हमने अपने पिटने की तैयारी की
सारे घर में हमने कैसी धूम मचाई चार बजे
मेरे बुज़ुर्गों ने मुझको तहज़ीब सिखाई चार बजे
बी हम-साई तू क्यूँ आई थी तुझको शायद इल्म नहीं
ये मेरे पिटने का मंज़र, कोई अच्छी फ़िल्म नहीं
तू मेरा ये ‘मेटनी-शो’ क्यूँ देखने आई चार बजे
मेरे बुज़ुर्गों ने मुझको तहज़ीब सिखाई चार बजे
चाय की मेज़ पे मैंने कुछ नक़्स निकाले फ़ूड में थे
हाए-री क़िस्मत अम्मी अब्बा दोनों ही कुछ मूड में थे
बैठे बैठे उनको सूझी मेरी भलाई चार बजे
मेरे बुज़ुर्गों ने मुझको तहज़ीब सिखाई चार बजे
तेरे हुक्म बिना ऐ दाता पत्ता तक नहीं हिलता है
मैं तो जानूँ तेरे ही दर से मुझको सब कुछ मिलता है
थैंक यू थैंक यू तूने कराई मेरी ठुकाई चार बजे
मेरे बुज़ुर्गों ने मुझको तहज़ीब सिखाई चार बजे

राजा मेहंदी अली ख़ान

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