Majrooh Sultanpuri Ki Ghazal
ग़ज़ल 1
डरा के मौज ओ तलातुम से हम-नशीनों को
यही तो हैं जो डुबोया किए सफ़ीनों को
शराब हो ही गई है ब-क़द्र-ए-पैमाना
ब-अज़्म-ए-तर्क निचोड़ा जब आस्तीनों को
जमाल-ए-सुब्ह दिया रू-ए-नौ-बहार दिया
मिरी निगाह भी देता ख़ुदा हसीनों को
हमारी राह में आए हज़ार मय-ख़ाने
भुला सके न मगर होश के क़रीनों को
कभी नज़र भी उठाई न सू-ए-बादा-ए-नाब
कभी चढ़ा गए पिघला के आबगीनों को
यही जहाँ है जहन्नम यही जहाँ फ़िरदौस
बताओ आलम-ए-बाला के सैर-बीनों को
तुझे न माने कोई तुझ को इस से क्या ‘मजरूह’
चल अपनी राह भटकने दे नुक्ता-चीनों को
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें ~ रम्ज़
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ग़ज़ल 2
हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह
इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है कि एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह
वो तो कहीं है और मगर दिल के आस-पास
फिरती है कोई शय निगह-ए-यार की तरह
सीधी है राह-ए-शौक़ पे यूँही कहीं-कहीं
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह
अब जा के कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ून-ए-जुनूँ
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह
‘मजरूह’ लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह
Majrooh Sultanpuri Ki Ghazal