Mirza Ghalib ke sher
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
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जान दी, दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ
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ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यूँ तिरा राहगुज़र याद आया
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हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता Mirza Ghalib ke sher
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जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए
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यूनिवर्सिटी छात्रों को पसंद आने वाली शायरी
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है
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फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वही ज़िंदगी हमारी है
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हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
बे-नियाज़ी तिरी आदत ही सही
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मैं ने माना कि कुछ नहीं ‘ग़ालिब’
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
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ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
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इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
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देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है
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करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
शहरयार की फ़िल्मों में आयी ग़ज़लें…______
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
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कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाए हाए Mirza Ghalib ke sher
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अपनी गली में मुझको न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले
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वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यूँ हो
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तुम सलामत रहो हज़ार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार
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इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
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मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
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तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता
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कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
आज ‘ग़ालिब’ ग़ज़ल-सरा न हुआ
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मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है
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मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
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हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है Mirza Ghalib ki shayari
अहमद फ़राज़ के बेहतरीन शेर…
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इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
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हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले Mirza Ghalib ki shayari
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कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
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हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
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क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में
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आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब’
कोई दिन और भी जिए होते
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इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही
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उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
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आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
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सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं
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मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ
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ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता Mirza Ghalib ke sher
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चाहते हैं ख़ूब-रूयों को ‘असद’
आप की सूरत तो देखा चाहिए
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रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है Mirza Ghalib ke sher
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कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ
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जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
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सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
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जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल
दीदा-ए-दिल को ज़ियारत-गाह-ए-हैरानी करे
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कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
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रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए
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इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
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कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
हमको जीने की भी उम्मीद नहीं
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मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं
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गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे
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वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं
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‘ग़ालिब’ न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर
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न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
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ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
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अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही
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दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना
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ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे
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निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
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हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
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खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआमला
शेरों के इंतिख़ाब ने रुस्वा किया मुझे
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नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का
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न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
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बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं ‘ग़ालिब’
कुछ तो है जिसकी पर्दा-दारी है
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थी ख़बर गर्म कि ‘ग़ालिब’ के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ
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क्यूँ न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लें यारब
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही
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क़त्अ कीजे न तअ’ल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही
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जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है
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रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
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तुम जानो तुमको ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो
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हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
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रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं
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होगा कोई ऐसा भी कि ‘ग़ालिब’ को न जाने
शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है
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बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
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आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझसा कहें जिसे
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रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’
कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था
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हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
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जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
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आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
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बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
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‘ग़ालिब’ छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
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जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है
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बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना
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जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और
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दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ
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दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
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है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
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रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या
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इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
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मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
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चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए
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ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता
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हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होते तक
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कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
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बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
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पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या
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मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या-रब कई दिए होते
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काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’
शर्म तुमको मगर नहीं आती
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आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
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कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
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दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
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कब वो सुनता है कहानी मेरी
और फिर वो भी ज़बानी मेरी
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जब तवक़्क़ो ही उठ गई ‘ग़ालिब’
क्यूँ किसी का गिला करे कोई
Mirza Ghalib ke sher