Rahat Indori Top Ghazals आज के दौर के मशहूर शायरों की बात की जाए तो उसमें राहत इन्दौरी का नाम ज़रूर आएगा. राहत की शायरी जितना मुशायरों में पसंद की जाती थी उसी तरह से उनकी किताबें भी ख़ूब पसंद की जाती रही हैं.
ग़ज़ल 1: अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए
सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवक़ूफ़
सारे सिपाही मोम के थे घुल के आ गए
मस्जिद में दूर दूर कोई दूसरा न था
हम आज अपने आप से मिल-जुल के आ गए
नींदों से जंग होती रहेगी तमाम उम्र
आँखों में बंद ख़्वाब अगर खुल के आ गए
सूरज ने अपनी शक्ल भी देखी थी पहली बार
आईने को मज़े भी तक़ाबुल के आ गए
अनजाने साए फिरने लगे हैं इधर उधर
मौसम हमारे शहर में काबुल के आ गए
रदीफ़: के आ गए
क़ाफ़िए: धुल, खुल, धुल, जुल, खुल, तक़ाबुल, काबुल
ग़ज़ल 2: चराग़ों को उछाला जा रहा है
चराग़ों को उछाला जा रहा है
हवा पर रोब डाला जा रहा है
न हार अपनी न अपनी जीत होगी
मगर सिक्का उछाला जा रहा है
वो देखो मय-कदे के रास्ते में
कोई अल्लाह-वाला जा रहा है
थे पहले ही कई साँप आस्तीं में
अब इक बिच्छू भी पाला जा रहा है
मिरे झूटे गिलासों की छका कर
बहकतों को सँभाला जा रहा है
हमी बुनियाद का पत्थर हैं लेकिन
हमें घर से निकाला जा रहा है
जनाज़े पर मिरे लिख देना यारो
मुहब्बत करने वाला जा रहा है
रदीफ़: जा रहा है
क़ाफ़िए: उछाला, डाला, उछाला, वाला, पाला, सँभाला, निकाला, वाला
ग़ज़ल 3: न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा
ना हम-सफ़र ना किसी हम-नशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा
मैं जानता था कि ज़हरीला साँप बन बन कर
तिरा ख़ुलूस मिरी आस्तीं से निकलेगा
इसी गली में वो भूका फ़क़ीर रहता था
तलाश कीजे ख़ज़ाना यहीं से निकलेगा
बुज़ुर्ग कहते थे इक वक़्त आएगा जिस दिन
जहाँ पे डूबेगा सूरज वहीं से निकलेगा
गुज़िश्ता साल के ज़ख़्मो हरे-भरे रहना
जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा
रदीफ़: से निकलेगा
क़ाफ़िए: हम-नशीं, हमीं, आस्तीं, यहीं, वहीं, यहीं
ग़ज़ल 4: रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है
एक दीवाना मुसाफ़िर है मिरी आँखों में
वक़्त-बे-वक़्त ठहर जाता है चल पड़ता है
अपनी ताबीर के चक्कर में मिरा जागता ख़्वाब
रोज़ सूरज की तरह घर से निकल पड़ता है
रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है
उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है
रदीफ़: पड़ता है
क़ाफ़िए: ख़लल, निकल, चल, निकल, निकल, ख़लल
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ग़ज़ल 5: अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है
लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है
हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है
रदीफ़: थोड़ी है
क़ाफ़िए: जान, आसमान, मकान, जान, ज़ुबान, मकान, हिन्दोस्तान
ग़ज़ल 6: ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर
ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर
रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मालूम कर
टूट कर बिखरी हुई तलवार के टुकड़े समेट
और अपने हार जाने का सबब मालूम कर
जागती आँखों के ख़्वाबों को ग़ज़ल का नाम दे
रात भर की करवटों का ज़ाइक़ा मंजूम कर
शाम तक लौट आऊँगा हाथों का ख़ाली-पन लिए
आज फिर निकला हूँ मैं घर से हथेली चूम कर
मत सिखा लहजे को अपनी बर्छियों के पैंतरे
ज़िंदा रहना है तो लहजे को ज़रा मासूम कर
रदीफ़: कर,
क़ाफ़िए: महरूम, मालूम, मालूम, मंजूम, हथेली, मासूम
ग़ज़ल 7: पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है Rahat Indori Top Ghazals
पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है
वो अब भी इक फटे रूमाल पर ख़ुशबू लगाता है
उसे कह दो कि ये ऊँचाइयाँ मुश्किल से मिलती हैं
वो सूरज के सफ़र में मोम के बाज़ू लगाता है
मैं काली रात के तेज़ाब से सूरज बनाता हूँ
मिरी चादर में ये पैवंद इक जुगनू लगाता है
यहाँ लछमन की रेखा है न सीता है मगर फिर भी
बहुत फेरे हमारे घर के इक साधू लगाता है
नमाज़ें मुस्तक़िल पहचान बन जाती है चेहरों की
तिलक जिस तरह माथे पर कोई हिन्दू लगाता है
न जाने ये अनोखा फ़र्क़ इस में किस तरह आया
वो अब कॉलर में फूलों की जगह बिच्छू लगाता है
अँधेरे और उजाले में ये समझौता ज़रूरी है
निशाने हम लगाते हैं ठिकाने तू लगाता है
रदीफ़: लगाता है
क़ाफ़िए: आँसू, ख़ुशबू, बाज़ू, जुगनू, साधू, हिन्दू, बिच्छू, तू
ग़ज़ल 8: मेरे कारोबार में सब ने बड़ी इमदाद की
मेरे कारोबार में सब ने बड़ी इमदाद की
दाद लोगों की गला अपना ग़ज़ल उस्ताद की
अपनी साँसें बेच कर मैं ने जिसे आबाद की
वो गली जन्नत तो अब भी है मगर शद्दाद की
उम्र भर चलते रहे आँखों पे पट्टी बाँध कर
ज़िंदगी को ढूँडने में ज़िंदगी बर्बाद की
दास्तानों के सभी किरदार कम होने लगे
आज काग़ज़ चुनती फिरती है परी बग़दाद की
इक सुलगता चीख़ता माहौल है और कुछ नहीं
बात करते हो ‘यगाना’ किस अमीनाबाद की
रदीफ़: की
क़ाफ़िए: इमदाद, उस्ताद, आबाद, शद्दाद, बर्बाद, बग़दाद, अमीनाबाद
ग़ज़ल 9: बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए
बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए
मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए
अल्लाह बरकतों से नवाज़ेगा इश्क़ में
है जितनी पूँजी पास लगा देनी चाहिए
दिल भी किसी फ़क़ीर के हुजरे से कम नहीं
दुनिया यहीं पे ला के छुपा देनी चाहिए
मैं ख़ुद भी करना चाहता हूँ अपना सामना
तुझ को भी अब नक़ाब उठा देनी चाहिए
मैं फूल हूँ तो फूल को गुल-दान हो नसीब
मैं आग हूँ तो आग बुझा देनी चाहिए
मैं ताज हूँ तो ताज को सर पर सजाएँ लोग
मैं ख़ाक हूँ तो ख़ाक उड़ा देनी चाहिए
मैं जब्र हूँ तो जब्र की ताईद बंद हो
मैं सब्र हूँ तो मुझ को दुआ देनी चाहिए
मैं ख़्वाब हूँ तो ख़्वाब से चौंकाइए मुझे
मैं नींद हूँ तो नींद उड़ा देनी चाहिए
सच बात कौन है जो सर-ए-आम कह सके
मैं कह रहा हूँ मुझको सज़ा देनी चाहिए
रदीफ़: देनी चाहिए
क़ाफ़िए: दवा, पिला, लगा, छुपा, उठा, बुझा, उड़ा, दुआ, उड़ा, सज़ा
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ग़ज़ल 10: फ़ैसले लम्हात के नस्लों पे भारी हो गए
फ़ैसले लम्हात के नस्लों पे भारी हो गए
बाप हाकिम था मगर बेटे भिकारी हो गए
देवियाँ पहुँचीं थीं अपने बाल बिखराए हुए
देवता मंदिर से निकले और पुजारी हो गए
रौशनी की जंग में तारीकियाँ पैदा हुईं
चाँद पागल हो गया तारे भिकारी हो गए
रख दिए जाएँगे नेज़े लफ़्ज़ और होंटों के बीच
ज़िल्ल-ए-सुब्हानी के अहकामात जारी हो गए
नर्म-ओ-नाज़ुक हल्के-फुल्के रूई जैसे ख़्वाब थे
आँसुओं में भीगने के ब’अद भारी हो गए
रदीफ़: हो गए
क़ाफ़िए: भारी, भिकारी, पुजारी, भिकारी, अहकामात, भारी
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