Liaqat Jafri Shayari ~ जम्मू के रहने वाले लियाक़त जाफ़री ने शेर ओ शायरी की दुनिया में ख़ासा नाम कमाया है. हम यहाँ उनके चुनिन्दा अश’आर पेश कर रहे हैं.
उस आइने में था सरसब्ज़ बाग़ का मंज़र
छुआ जो मैंने तो दो तितलियाँ निकल आईं
वजूद अपना है और आप तय करेंगे हम
कहाँ पे होना है हमको कहाँ नहीं होना
मैं दौड़ दौड़ के ख़ुद को पकड़ के लाता हूँ
तुम्हारे इश्क़ ने बच्चा बना दिया है मुझे
सफ़र उलझा दिए हैं उसने सारे
मिरे पैरों में जो तेज़ी पड़ी है
वो हंगामा गुज़र जाता उधर से
मगर रस्ते में ख़ामोशी पड़ी है
ये जो रह रह के सर-ए-दश्त हवा चलती है
कितनी अच्छी है मगर कितना बुरा चलती है
हाए वो साँस कि रुकती है तो क्या रुकती है
हाए वो आँख कि चलती है तो क्या चलती है
आज कुछ और ही मंज़र है मिरे चारों तरफ़
ग़ैर-महसूस तरीक़े से हवा चलती है
ख़ामुशी को सदा में रक्खा गया
एक जादू हवा में रक्खा गया
एक कोंपल सजाई अचकन पर
एक ख़ंजर क़बा में रक्खा गया
मुझ को तख़्लीक़ से गुज़ारा गया
और ख़ुदा की रज़ा में रक्खा गया
उसी के दम पे तो ये दोस्ती बची हुई थी
हमारे बीच में जो हम-सरी बची हुई थी
उसी के दम पे मनाया था उस ने जश्न मिरा
कि दुश्मनी में भी जो दोस्ती बची हुई थी
अजीब लोग थे वो तितलियाँ बनाते थे
समुंदरों के लिए सीपियाँ बनाते थे
वही बनाते थे लोहे को तोड़ कर ताला
फिर उस के बा’द वही चाबियाँ बनाते थे
फ़ुज़ूल वक़्त में वो सारे शीशागर मिल कर
सुहागनों के लिए चूड़ियाँ बनाते थे
उस्तादों के उस्ताद शायरों के 400 शेर…
Liaqat Jafri Shayari