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यह कहानी नहीं- अमृता प्रीतम Yeh Kahani Nahin
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “यह कहानी नहीं” का पहला भाग
भाग-2

(अब तक आपने पढ़ा..किसी सरकारी मीटिंग में स के शहर आयी अ को मीटिंग ख़त्म होने के बाद स अपने घर ले आता है। इन दोनों की पहचान पुरानी लगती है लेकिन उसका कोई ज़िक्र कहानी में नहीं मिलता..जहाँ अ बार-बार अपनी फ़्लाइट के लिए बहौट कम वक़्त बचे होने की बात करती है वहीं स ड्राइवर से कहता है कि वो दो दिन बाद की फ़्लाइट टिकट बुक कर दे। यही नहीं वो माँ से कई दिनों से टलती आयी दोस्तों कि दावत भी अगले दिन रखने की बात कहता है। अ न चाहते हुए भी झिझकते हुए रुकने की सोचती है, स की माँ भी अ के रुकने से ख़ुश है और अपना रूम अ के लिए ख़ाली करके बैठक में सोने चली जाती है। अ को माँ का रूम लेकर झिझक है और उसे नींद भी नहीं आती। कमरे में आती एक पहचानी-सी, घरेलू बू आती रही। किसी तरह वो नींद में डूब गयीं और जब उठीं तो दिन चढ़ चुका था और जब वो बाहर बैठक में आयीं तो दावत की तैयारियाँ चाल रही थीं। अब आगे…) Yeh Kahani Nahin

एक बार तो अ की आँखें झपककर रह गईं – बैठक में सामने स खड़ा था। चारखाने का नीले रंग का तहमद पहने हुए। अ ने उसे कभी रात के सोने के समय के कपड़ों में नहीं देखा था। हमेशा दिन में ही देखा था – किसी सड़क पर, सड़क के किनारे, किसी कैफ़े में, होटल में, या किसी सरकारी मीटिंग में – उसकी यह पहचान नई-सी लगी। आँखों में अटक-सी गई…

अ ने भी इस समय नाइट सूट पहना हुआ था, पर अ ने बैठक में आने से पहले उस पर ध्यान नहीं दिया था, अब ध्यान आया तो अपना-आप ही अजीब लगा – साधारण से असाधारण-सा होता हुआ…बैठक में खड़ा हुआ स, अ को आते हुए देखकर कहने लगा -”ये दो सोफ़े हैं, इन्हें लम्बाई के रुख रख लें। बीच में जगह खुली हो जाएगी”

अ ने सोफ़े को पकड़वाया, छोटी मेज़ों को उठाकर कुर्सियों के बीच में रखा। फिर माँ ने चौके से आवाज़ दी तो अ ने चाय लाकर मेज़ पर रख दी।

चाय पीकर स ने उससे कहा -”चलो, जिन लोगों को बुलाना है, उनके घर जाकर कह आएँ और लौटते हुए कुछ फल लेते आएँ”

दोनों ने पुराने परिचित दोस्तों के घर जाकर दस्तक दी, सन्देशे दिए, रास्ते से चीज़ें खरीदीं, फिर वापस आकर दोपहर का खाना खाया, और फिर बैठक को फूलों से सजाने में लग गए।

दोनों ने रास्ते में साधारण-सी बातें की थीं – “फल कौन-कौन-से लेने हैं? पान लेने हैं या नहीं? ड्रिंक्स के साथ के लिए कबाब कितने ले लें? फलाँ का घर रास्ते में पड़ता है, उसे भी बुला लें?” – और यह बातें वे नहीं थीं जो सात बरस बाद मिलने वाले करते हैं।

अ को सवेरे दोस्तों के घर पर पहली-दूसरी दस्तक देते समय ही सिर्फ़ थोड़ी-सी परेशानी महसूस हुई थी। वे भले ही स के दोस्त थे, पर एक लम्बे समय से अ को जानते थे, दरवाज़ा खोलने पर बाहर उसे स के साथ देखते तो हैरान-से हो कह उठते -”आप”

पर वे जब अकेले गाड़ी में बैठते, तो स हँस देता -”देखा, कितना हैरान हो गया, उससे बोला भी नहीं जा रहा था”

और फिर एक-दो बार के बाद दोस्तों की हैरानी भी उनकी साधारण बातों में शामिल हो गई। स की तरह अ भी सहज मन से हँसने लगी। शाम के समय स ने छाती में दर्द की शिकायत की। माँ ने कटोर में ब्राण्डी डाल दी, और अ से कहा -”लो बेटी! यह ब्राण्डी इसकी छाती पर मल दो”

Amrita Pritam Manto Kahani
Amrita Pritam

इस समय तक शायद इतना कुछ सहज हो चुका था, अ ने स की कमीज़ के ऊपर वाले बटन खोले, और हाथ से उसकी छाती पर ब्राण्डी मलने लगी।

बाहर पाम के पेड़ों के पत्ते और केलों के पत्ते शायद अभी भी काँप रहे थे, पर अ के हाथ में कम्पन नहीं था। एक दोस्त समय से पहले आ गया था, अ ने ब्राण्डी में भीगे हुए हाथों से उसका स्वागत करते हुए नमस्कार भी किया, और फिर कटोरी में हाथ डूबोकर बाक़ी रहती ब्राण्डी को उसकी गर्दन पर मल दिया – कन्धों तक। Yeh Kahani Nahin

धीरे-धीरे कमरा मेहमानों से भर गया। अ फ़्रिज से बर्फ़ निकालती रही और सादा पानी भर-भर फ़्रिज में रखती रही। बीच-बीच में रसोई की तरफ जाती, ठण्डे कबाब फिर से गर्म करके ले आती। सिर्फ़ एक बार जब स ने अ के कान के पास होकर कहा -”तीन-चार तो वे लोग भी आ गए हैं, जिन्हें बुलाया नहीं था। ज़रूर किसी दोस्त ने उनसे भी कहा होगा, तुम्हें देखने के लिए आ गए हैं” – तो पल-भर के लिए अ की स्वाभाविकता टूटी, पर फिर जब स ने उससे कुछ गिलास धोने के लिए कहा, तो वह उसी तरह सहज मन हो गई।

महफ़िल गर्म हुई, ठंडी हुई, और जब लगभग आधी रात के समय सब चले गए, अ को सोने वाले कमरे में जाकर अपने सूटकेस में से रात के कपड़े निकालकर पहनते हुए लगा कि सड़कों पर बना हुआ जादू का घर अब कहीं भी नहीं था….

यह जादू का घर उसने कई बार देखा था – बनते हुए भी, मिटते हुए भी, इसलिए वह हैरान नहीं थी। सिर्फ थकी-थकी सी तकिए पर सिर रखकर सोचने लगी – कब की बात है… शायद पच्चीस बरस हो गए- नहीं तीस बरस …. जब पहली बार वे ज़िन्दगी की सड़कों पर मिले थे – अ किस सड़क से आई थी, स कौन-सी सड़क से आया या, दोनों पूछना भी भूल गये थे, और बताना भी। वे निगाह नीची किए ज़मीन में नींवें खोदते रहे, और फिर यहाँ जादू का एक घर बनकर खड़ा हो गया, और वे सहज मन से सारे दिन उस घर में रहते रहे।

फिर जब दोनों की सड़कों ने उन्हें आवाज़ें दीं, वे अपनी-अपनी सड़क की ओर जाते हुए चौंककर खड़े हो गए। देखा – दोनों सड़कों के बीच एक गहरी खाई थी। स कितनी देर उस खाई की ओर देखता रहा, जैसे अ से पूछ रहा हो कि इस खाई को तुम किस तरह से पार करोगी? अ ने कहा कुछ नहीं था, पर स के हाथ की ओर देखा था, जैसे कह रही हो – “तुम हाथ पकड़कर पार करा लो, मैं महज़ब की इस खाई को पार कर जाऊँगी”

फिर स का ध्यान ऊपर की ओर गया था, अ के हाथ की ओर। अ की उँगली में हीरे की एक अँगूठी चमक रही थी। स कितनी देर तक देखता रहा, जैसे पूछ रहा हो – तुम्हारी उँगली पर यह जो क़ानून का धागा लिपटा हुआ है, मैं इसका क्या करूँगा? अ ने अपनी उँगली की ओर देखा था और धीरे से हँस पड़ी थी, जैसे कह रही हो – “तुम एक बार कहो, मैं क़ानून का यह धागा नाखूनों से खोल लूँगी। नाखूनों से नहीं खुलेगा तो दाँतों से खोल लूँगी”

पर स चुप रहा या, और अ भी चुप खड़ी रह गई थी। पर जैसे सड़कें एक ही जगह पर खड़ी हुई भी चलती रहती हैं, वे भी एक जगह पर खड़े हुए चलते रहे…

क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “यह कहानी नहीं” का अंतिम भाग
Yeh Kahani Nahin

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