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यह कहानी नहीं- अमृता प्रीतम Punjabi Story in Hindi
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “यह कहानी नहीं” का पहला भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “यह कहानी नहीं” का दूसरा भाग
भाग-3

(अब तक आपने पढ़ा…सरकारी मीटिंग के लिए स के शहर आयी अ को स अपने घर अधिकार से रोक लेता है। स की माँ भी अ को रुकने के लिए कहती है और कई दिनों से अटकी दोस्तों की दावत का प्लान भी बनाया जाता है। पहली रात अ की आँखों से नींद कोसों दूर थी लेकिन घर में आ रही एक घरेलू सी बू उसे जगा रखती हैं पर जब वो उठती है तो दावत की तैयारी देखती है। पहली बार स को रात में पहनने वाले कपड़ों में देखती है। दोनों की जान-पहचान बाहर तक ही थी। दावत के लिए दोस्तों को बुलाने जाने पर दोस्तों का अ को देखकर चौंकना दोनों के लिए मज़ाक़ का विषय बनता है और उनके बेच सहजता का भी। दावत में सबकी आवभगत करती अ भी काफ़ी सहज हो चुकी है। बीच में कभी-कभी अतीत में खो जाती है, जहाँ उनके मिलने में ही एक घर का एहसास हुआ करता था। जहाँ अ, स के साथ से रिश्तों और मज़हब की हर खाई पार करना चाहती थी। लेकिन उस वक़्त स ने कुछ भी नहीं कहा और दोनों की राहें चलने लगीं, जो कहीं-कहीं मिला करतीं और उस जगह दोनों का घर बन जाया करता। अब आगे..) Punjabi Story in Hindi

फिर एक दिन स के शहर से आने वाली सड़क अ के शहर आ गई थी, और अ ने स की आवाज़ सुनकर अपने एक बरस के बच्चे को उठाया था और बाहर सड़क पर उसके पास आकर खड़ी हो गई थी। स ने धीरे से हाथ आगे करके सोए हुए बच्चे को अ से ले लिया था और अपने कन्धे से लगा लिया था। और फिर वे सारे दिन उस शहर की सड़कों पर चलते रहे…

वे भरपूर जवानी के दिन थे – उनके लिए न धूप थी, न ­डर। और फिर जब चाय पीने के लिए वे एक कैफ़े में गए तो बैरे ने एक मर्द, एक औरत और एक बच्चे को देखकर एक अलग कोने की कुर्सियाँ पोंछ दी थीं। और कैफ़े के उस अलग कोने में एक जादू का घर बनकर खड़ा हो गया था…

Amrita Pritam Manto Kahani
Amrita Pritam

और एक बार… अचानक चलती हुई रेलगाड़ी में मिलाप हो गया था। स भी था, माँ भी, और स का एक दोस्त भी। अ की सीट बहुत दूर थी, पर स के दोस्त ने उससे अपनी सीट बदल ली थी और उसका सूटकेस उठाकर स के सूटकेस के पास रख दिया था। गाड़ी में दिन के समय ठंड नहीं थी, पर रात ठंडी थी। माँ ने दोनों को एक कम्बल दे दिया था। आधा स के लिए आधा अ के लिए। और चलती गाड़ी में उस साझे के कम्बल के किनारे जादू के घर की दीवारें बन गई थीं…

जादू की दीवारें बनती थीं, मिटती थीं, और आख़िर उनके बीच खँडहरों की-सी खामोशी का एक ढेर लग जाता था…

स को कोई बन्धन नहीं था। अ को था। पर वह तोड़ सकती थी। फिर यह क्या था कि वे तमाम उम्र सड़कों पर चलते रहे…अब तो उम्र बीत गई… अ ने उम्र के तपते दिनों के बारे में भी सोचा और अब के ठण्डे दिनों के बारे में भी। लगा – सब दिन, सब बरस पाम के पत्तों की तरह हवा में खड़े काँप रहे थे।

बहुत दिन हुए, एक बार अ ने बरसों की ख़ामोशी को तोड़कर पूछा था – “तुम बोलते क्यों नहीं? कुछ भी नहीं कहते। कुछ तो कहो”

पर स हँस दिया था, कहने लगा -”यहाँ रोशनी बहुत है, हर जगह रोशनी होती है, मुझसे बोला नहीं जाता”

और अ का जी किया था वह एक बार सूरज को पकड़कर बुझा दे…

सड़कों पर सिर्फ दिन चढ़ते हैं। रातें तो घरों में होती हैं… पर घर कोई था नहीं, इसलिए रात भी कहीं नहीं थी – उनके पास सिर्फ़ सड़कें थीं, और सूरज था, और स सूरज की रोशनी में बोलता नहीं था।

एक बार बोला था…

वह चुप-सा बैठा हुआ था जब अ ने पूछा था -”क्या सोच रहे हो?” तो वह बोला – “सोच रहा हूँ, लड़कियों से फ़्लर्ट करूँ और तुम्हें दुखी करूँ”

पर इस तरह अ दुखी नहीं, सुखी हो जाती। इसलिए अ भी हँसने लगी थी, स भी।

और फिर एक लम्बी ख़ामोशी…

कई बार अ के जी में आता था -हाथ आगे बढ़ाकर स को उसकी ख़ामोशी में से बाहर ले आए, वहाँ तक, जहाँ तक दिल का दर्द है। पर वह अपने हाथों को सिर्फ़ देखती रहती थी, उसने हाथों से कभी कुछ कहा नहीं था।

एक बार स ने कहा था -”चलो चीन चलें”

“चीन?”

“जाएँगे, पर आएँगे नहीं”

“पर चीन क्यों?”

यह ‘क्यों’ भी शायद पाम के पेड़ के समान था जिसके पत्ते फिर हवा में काँपने लगे… Punjabi Story in Hindi

इस समय अ ने तकिए पर सिर रख हुआ था, पर नींद नहीं आ रही थी। स बराबर के कमरे में सोया हुआ था, शायद नींद की गोली खाकर।

अ को न अपने जागने पर गुस्सा आया, न स की नींद पर। वह सिर्फ़ यह सोच रही थी कि वे सड़कों पर चलते हुए जब कभी मिल जाते हैं तो वहाँ घड़ी-पहर के लिए एक जादू का घर क्यों बनकर खड़ा हो जाता है?

अ को हँसी-सी आ गई – तपती हुई जवानी के समय तो ऐसा होता था, ठीक है, लेकिन अब क्यों होता है? आज क्यों हुआ?

यह न जाने क्या था, जो उम्र की पकड़ में नहीं आ रहा था…

बाक़ी रात न जाने कब बीत गई – अब दरवाज़े पर धीरे से खटका करता हुआ ड्राइवर कह रहा था कि एयरपोर्ट जाने का समय हो गया है…अ ने साड़ी पहनी, सूटकेस उठाया, स भी जागकर अपने कमरे से आ गया, और वे दोनों दरवाज़े की ओर बढ़े जो बाहर सड़क की ओर खुलता था…

ड्राइवर ने अ के हाथ से सूटकेस ले लिया था, अ को अपने हाथ और ख़ाली-ख़ाली से लगे। वह दहलीज़ के पास अटक-सी गई, फिर जल्दी से अन्दर गई और बैठक में सोई हुई माँ को ख़ाली हाथों से प्रणाम करके बाहर आ गई…

फिर एयरपोर्ट वाली सड़क शुरु हो गई, ख़त्म होने को भी आ गई, पर स भी चुप था, अ भी…

अचानक स ने कहा -”तुम कुछ कहने जा रही थीं?”

“नहीं”

और वह फिर चुप हो गया।

फिर अ को लगा – शायद स को भी – कि बहुत-कुछ कहने को था, बहुत-कुछ सुनने को, पर बहुत देर हो गई थी, और अब सब शब्द ज़मीन में गड़ गए थे – पाम के पेड़ बन गए थे और मन के समुद्र के पास लगे हुए उन पेड़ों के पत्ते शायद तब तक काँपते रहेंगे जब तक हवा चलती रहेगी..

एयरपोर्ट आ गया और पाँवों के नीचे स के शहर की सड़क टूट गई….

समाप्त Punjabi Story in Hindi

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