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यह कहानी नहीं- अमृता प्रीतम Yeh Kahani Nahin Amrita Pritam

भाग-1

पत्थर और चूना बहुत था, लेकिन अगर थोड़ी-सी जगह पर दीवार की तरह उभरकर खड़ा हो जाता, तो घर की दीवारें बन सकता था। पर बना नहीं। वह धरती पर फैल गया, सड़कों की तरह और वे दोनों तमाम उम्र उन सड़कों पर चलते रहे…. Yeh Kahani Nahin Amrita Pritam

सड़कें, एक-दूसरे के पहलू से भी फटती हैं, एक-दूसरे के शरीर को चीरकर भी गुज़रती हैं, एक-दूसरे से हाथ छूड़ाकर गुम भी हो जाती हैं, और एक-दूसरे के गले से लगकर एक-दूसरे में लीन भी हो जाती थीं। वे एक-दूसरे से मिलते रहे, पर सिर्फ तब, जब कभी-कभार उनके पैरों के नीचे बिछी हुई सड़कें एक-दूसरे से आकर मिल जाती थीं।

घड़ी-पल के लिए शायद सड़कें भी चौंककर रुक जाती थीं, और उनके पैर भी…

और तब शायद दोनों को उस घर का ध्यान आ जाता था जो बना नहीं था…बन सकता था, फिर क्यों नहीं बना? वे दोनों हैरान-से होकर पाँवों के नीचे की ज़मीन को ऐसे देखते थे जैसे यह बात उस ज़मीन से पूछ रहे हों…और फिर वे कितनी ही देर ज़मीन की ओर ऐसे देखने लगते मानों वे अपनी नज़र से ज़मीन में उस घर की नींवें खोद लेंगे।…और कई बार सचमुच वहाँ जादू का एक घर उभरकर खड़ा हो जाता और वे दोनों ऐसे सहज मन हो जाते मानों बरसों से उस घर में रह रहे हों…

यह उनकी भरपूर जवानी के दिनों की बात नहीं, अब की बात है, ठण्डी उम्र की बात, कि अ एक सरकारी मीटिंग के लिए स के शहर गई। अ को भी वक्त ने स जितना सरकारी ओहदा दिया है, और बराबर की हैसियत के लोग जब मीटिंग से उठे, सरकारी दफ़्तर ने बाहर के शहरों से आने वालों के लिए वापसी टिकट तैयार रखे हुए थे, स ने आगे बढ़कर अ का टिकट ले लिया, और बाहर आकर अ से अपनी गाड़ी में बैठने के लिए कहा।

पूछा – “सामान कहाँ है?”

“होटल में”

स ने ड्राइवर से पहले होटल और फिर वापस घर चलने के लिए कहा।

अ ने आपत्ति नहीं की, पर तर्क के तौर पर कहा – “प्लेन में सिर्फ दो घंटे बाक़ी हैं, होटल होकर मुश्किल से एयरपोर्ट पहुँचूँगी”

“प्लेन कल भी जाएगा, परसों भी, रोज़ जाएगा”- स ने सिर्फ इतना कहा, फिर रास्ते में कुछ नहीं कहा।

होटल से सूटकेस लेकर गाड़ी में रख लिया, तो एक बार अ ने फिर कहा –

“वक़्त थोड़ा है, प्लेन मिस हो जाएगा”

स ने जवाब में कहा – “घर पर माँ इन्तज़ार कर रही होंगी”

अ सोचती रही कि शायद स ने माँ को इस मीटिंग का दिन बताया हुआ था, पर वह समझ नहीं सकी – क्यों बताया था?

Amrita Pritam Manto Kahani
Amrita Pritam

अ कभी-कभी मन से यह ‘क्यों’ पूछ लेती थी, पर जवाब का इन्तज़ार नहीं करती थी। वह जानती थी – मन के पास कोई जवाब नहीं था। वह चुप बैठी शीशे में से बाहर शहर की इमारतों के देखती रही…कुछ देर बाद इमारतों का सिलसिला टूट गया। शहर से दूर बाहर आबादी आ गई, और पाम के बड़े-बड़े पेड़ों की क़तारें शुरु हो गईं…समुद्र शायद पास ही था, अ की साँस नमकीन-सी हो गई। उसे लगा-पाम के पत्तों की तरह उसके हाथों में कम्पन आ गया था-शायद स का घर भी अब पास था…

पेड़ों-पत्तों में लिपटी हुई-सी कॉटेज के पास पहुँचकर गाड़ी खड़ी हो गई। अ भी उतरी, पर कॉटेज के भीतर जाते हुए एक पल के लिए बाहर केले के पेड़ के पास खड़ी हो गई। जी किया – अपने काँपते हुए हाथों को यहाँ बाहर केले के काँपते हुए पत्तों के बीच में रख दे। वह स के साथ भीतर कॉटेज में जा सकती थी, पर हाथों की वहाँ ज़रूरत नहीं थी – इन हाथों से न वह अब स को कुछ दे सकती थी, न स से कुछ ले सकती थी…

माँ ने शायद गाड़ी की आवाज़ सुन ली थी, बाहर आ गईं। उन्होंने हमेशा की तरह माथा चूमा और कहा -”आओ, बेटी”

इस बार अ बहुत दिनों बाद माँ से मिली थी, पर माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए – जैसे सिर पर बरसों का बोझ उतार दिया हो – और उसे भीतर ले जाकर बिठाते हुए उससे पूछा -”क्या पियोगी, बेटी?”

स भी अब तक भीतर आ गया था, माँ से कहने लगा – “पहले चाय बनवाओ, फिर खाना”

अ ने देखा – ड्राइवर गाड़ी से सूटकेस अन्दर ला रहा था। उसने स की ओर देखा, कहा – “बहुत थोड़ा वक़्त है, मुश्किल से एयरपोर्ट पहुँचूँगी”

स ने उससे नहीं, ड्राइवर से कहा – “कल सवेरे जाकर परसों का टिकट ले आना” और माँ से कहा -”तुम कहती थीं कि मेरे कुछ दोस्तों को खाने पर बुलाना है, कल बुला लो”

अ ने स की जेब की ओर देखा जिसमें उसका वापसी का टिकट पड़ा हुआ था, कहा -”पर यह टिकट बरबाद हो जाएगा…”

माँ रसोई की तरफ जाते हुए खड़ी हो गई, और अ के कन्धे पर अपना हाथ रखकर कहने लगी -”टिकट का क्या है, बेटी! इतना कह रहा है, रुक जाओ” Yeh Kahani Nahin Amrita Pritam

“पर क्यों?” अ के मन में आया, पर कहा कुछ नहीं। कुर्सी से उठकर कमरे के आगे बरामदे में जाकर खड़ी हो गई। सामने दूर तक पाम के ऊँचे-ऊँचे पेड़ थे। समुद्र परे था। उसकी आवाज़ सुनाई दे रही थी। अ को लगा – सिर्फ आज का ‘क्यों’ नहीं, उसकी ज़िन्दगी के कितने ही ‘क्यों’ उसके मन के समुद्र के तट पर इन पाम के पेड़ों की तरह उगे हुए हैं, और उनके पत्ते अनेक वर्षों से हवा में काँप रहे हैं।

अ ने घर के मेहमान की तरह चाय पी, रात को खाना खाया, और घर का गुसलखाना पूछकर रात को सोने के समय पहनने वाले कपड़े बदले। घर में एक लम्बी बैठक थी, ड्राइंग-डाइनिंग, और दो और कमरे थे – एक स का, एक माँ का। माँ ने ज़िद करके अपना कमरा अ को दे दिया, और स्वयं बैठक में सो गई।

अ सोने वाले कमरे में चली गई, पर कितनी ही देर झिझकी हुई-सी खड़ी रही। सोचती रही – “मैं बैठक में एक-दो रातें मुसाफ़िरों की तरह ही रह लेती, ठीक था, यह कमरा माँ का है, माँ को ही रहना चाहिए था…”

सोने वाले कमरे के पलंग में,पास … में, और अलमारी में एक घरेलू-सी बू-बास होती है, अ ने इसका एक घूँट-सा भरा। पर फिर अपना साँस रोक लिया मानो अपने ही साँसो से डर रही हो…

बराबर का कमरा स का था। कोई आवाज़ नहीं थी। घड़ी पहले स ने सिर-दर्द की शिकायत की थी, नींद की गोली खाई थी, अब तक शायद सो गया था। पर बराबर वाले कमरों की भी अपनी बू-बास होती है, अ ने एक बार उसका भी घूँट पीना चाहा, पर साँस रुकी रही।

फिर अ का ध्यान अलमारी के पास नीचे फ़र्श पर पड़े हुए अपने सूटकेस की ओर गया, और उसे हँसी-सी आ गई – “यह देखो मेरा सूटकेस, मुझे सारी रात मेरी मुसाफ़िरी की याद दिलाता रहेगा…”

और वह सूटकेस की ओर देखते हुए थकी हुई-सी, तकिए पर सिर रखकर लेट गई…न जाने कब नींद आ गई। सोकर जागी तो ख़ासा दिन चढ़ा हुआ था। बैठक में रात को होने वाली दावत की हलचल थी।

क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “यह कहानी नहीं” का दूसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “यह कहानी नहीं” का अंतिम भाग
Yeh Kahani Nahin Amrita Pritam

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