मुनीर नियाज़ी की ग़ज़ल: ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या (Zinda Rahen To Kya Mar Jayen Hum To Kya)
ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या,
दुनिया से ख़ामुशी से गुज़र जाएँ हम तो क्या
हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने,
इक ख़्वाब हैं जहाँ में बिखर जाएँ हम तो क्या
अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ,
शाम आ गई है लौट के घर जाएँ हम तो क्या
दिल की ख़लिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र,
दरिया-ए-ग़म के पार उतर जाएँ हम तो क्या
[रदीफ़- जाएँ हम तो क्या]
[क़ाफ़िए- मर, गुज़र, बिखर, घर, उतर]
Zinda Rahen To Kya Mar Jayen Hum To Kya
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अमीर मीनाई की ग़ज़ल: उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ,
उसकी हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ,
ढूँढने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ
डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा,
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ
ज़ब्त कम-बख़्त ने याँ आ के गला घोंटा है,
कि उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ
बेवफ़ा लिखते हैं वो अपने क़लम से मुझ को,
ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ
इस तरह सोए हैं सर रख के मेरे ज़ानू पर,
अपनी सोई हुई क़िस्मत को जगा भी न सकूँ
[रदीफ़- भी न सकूँ]
[मिटा, पा, छुपा, सुना, मिटा, जगा]
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