Momin Khan Momin हकीम मोमिन ख़ाँ ‘मोमिन’- उर्दू काव्य में ‘मोमिन’ का एक विशेष महत्त्व है। उनका क्षेल मुख्यतः प्रेम-व्यापार होते हुए भी उन्होंने वर्णन में जो तड़प पैदा की, वह उन्हीं का हिस्सा थी। वर्णन-सौन्दर्य की तारीफ़ यह है कि वे अभिव्यक्ति की मौलिकता और भावपक्ष की प्रबलता दोनों के लिए प्रसिद्ध हो गये और उर्दू में अपना नाम अमर कर गये ।
मोमिन खाँ के पिता का नाम हकीम गुलाम नबी और पितामह का हकीम नामदार खाँ था । यह कश्मीर के पुराने उच्च वंश के रत्न थे। मुग़ल साम्राज्य के अंतिम काल में हकीम नामदार खाँ और उनके भाई कामदार खाँ कश्मीर से आकर दिल्ली बस गये थे और शाही हकीमों में से हो गये थे। शाह आलम के जमाने में उन्हें परगना नारनौल में कुछ जागीर मिली। अंग्रेजो सरकार ने जब नवाब फैजतलब ख़ाँ को झझझर की रियासत दी तो परगना नारनौल भी उसमें शामिल था। इस प्रकार इस वंश के लोगों के हाथ से जागीर तो निकल गयी लेकिन उसके बदले हजार रुपया सालाना की पेंशन मिलने लगी, जिसका कुछ भाग मोमिन खाँ को भी मिलता था। इसी प्रकार इस वंश के चार हकीमों को वैसे भी सौ रुपया महीना अंग्रेजी सरकार देती थी, जिसमें से इनका भाग इन्हें मिलता रहा। Momin Khan Momin
इनका खानदानी घर दिल्ली के कूचा चेलां में था। उसी में। 215 हिल् (1800 ई०) में इनका जन्म हुआ। बचपन की साधारण शिक्षा के बाद इन्होंने शाह अब्दुलक़ादिर से अरबी की शिक्षा ग्रहण की। इनकी बुद्धि प्रखर थी। जो सुनते थे तुरंत याद हो जाता था। जब अरबी में कुछ चंल निकले तो अपने पिता तथा अपने चचा गुलाम हैदर ख़ाँ और गुलाम हसन खाँ से तिब (यूनानी चिकित्सा-शास्त्र) की शिक्षा ली और उन्हीं के मतब (औपधा- लय) में चिकित्सा-कार्य आरंभ कर दिया ।
हकीम मोमिन खाँ की प्रतिभा केवल हकीमी और कविता तक ही सीमित नहीं रही। उन्होंने ज्योतिष में भी दूर-दूर तक नाम कर लिया था। इस विद्या में इन्हें ऐसी पूर्णता प्राप्त थी कि वर्ष भर में केवल एक बार तक़वीम (पञ्चाङ्ग) देखते थे और सारे वर्ष के लिए ग्रहों की स्थिति मस्तिष्क में बनी रहती । कोई कुछ पूछने आता तो न पञ्चाङ्ग देखते न उसकी जन्मकुण्डली; उसे कुछ कहने भी न देते थे, खुद ही उससे पूछते जाते थे ‘यह हुआ ?’ ‘वह हुआ ?’ और वह मानता जाता था ।
ज्योतिष के अतिरिक्त शतरंज का भी इन्हें बड़ा शौक़ था। जब खेलने बैठते तो दीन-दुनिया किसी की खबर न रहती थी और घर के जरूरी काम तक भूल जाते थे । दिल्ली के प्रसिद्ध शतरंजबाज़ करामत अली से इनकी बड़ी घनिष्ठ मिलता थी । दिल्ली जैसे शहर में इनके जमाने में शतरंज के दो ही एक खिलाड़ी ऐसे थे जो इनसे अच्छी शतरंज खेल सकते हों ।
MOMIN KHAN MOMIN
‘मोमिन’ का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था। लम्बा छरहरा बदन, गोरी गुलाबी रंगत, बड़ी-बड़ी आँखें, ग़िलाफ़ी पलकें, चौड़ा माथा, लम्बी सुतवां नाक, पतले होंठ, घुंघराले बाल, चौड़ा सीना, पतली कमर, हलकी-हलकी दाढ़ी मोंछें तात्पर्य यह कि कश्मीरी सौन्दर्य की जीती-जागती प्रतिमा थे । अच्छा खाने, पहनने, इल, फूल आदि सभी का शौक़ था। बगैर कुरते के नीची चोली का शरबती मलमल का अंगरखा, लाल गुलबदन का पाजामा और गुलशन की टोपी लगाते थे। गुलबदन और गुलशन उस समय के बड़े क़ीमती कपड़े थे। मकान में सहन और दालान बड़े-बड़े थे। ऊपर की दालान में बढ़िया क़ालीन पर गावतकिया लगाकर बैठते थे। तश्तरी में चान्दी का हुक़्क़ा सामने रखा रहता। शिष्यगण, ज्योतिषी, हकीम, शहजादे, अमीरजादे, व्यापारी आदि सभी मिलनेवाले शिष्टता पूर्वक सामने बैठे रहते थे। मालूम होता था किसी बड़े अमीर का दरबार लगा है। Momin Khan Momin
‘मोमिन’ खुद जागीरदार नहीं थे लेकिन उन्होंने किसी दरबार की खाक भी नहीं छानी। थोड़ी-बहुत जो कुछ पेंशन मिलती थी, उससे और हकीमी से होनेवाली आमदनी के सहारे अपने शौक़ पूरे करते थे लेकिन खर्च भी क़ायदे के साथ करते थे। सारी जिन्दगी रुपये के लिए किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ी
। बहुत-से रईसों ने उन्हें बुलाया। टोंक के नवाब तो उन्हें जबर्दस्ती कुछ दिन के लिए अपने साथ ले गये थे लेकिन कहीं और यह न गये । भोपाल के नवाब इन्हें बुलाते रहे, रामपुर और जहाँगीराबाद के दर- बारों से भी निमन्त्रण आते रहे लेकिन यह न गये। महाराजा कपूरथला ने 350 रुपये मासिक पर बुलाया, न गये। पंजाब के लेफ्टीनेंट गवर्नर मि० टामसन ने ‘ग़ालिब’ के मना करने पर इन्हें दिल्ली कालेज की बरबी की प्रोफ़ेसरी देनी चाही लेकिन वेतन अस्सी रुपये बताया । इन्होंने सौ रुपये मांगे तो उन्होंने कहा सौ रुपये लेने हों तो मेरे साथ पंजाब चलो, इन्होंने वह भी स्वीकार नहीं किया। दिल्ली के दरबार में जरूर जाते रहते थे लेकिन दिल्ली- नरेश के लिए इन्होंने कोई क़सीदा नहीं लिखा। सामंत वर्ग में से सिर्फ़ दो के लिए इन्होंने क़सीदे लिखे हैं- एक टोंक के नवाब के लिए, जो इन्हें जबर्दस्ती अपने साथ ले गये थे और दूसरा पटियाला के महाराज अजीतसिंह के लिए, जिन्होंने राह चलते इन्हें बुलाकर एक हथिनी इनको भेंट की। ‘मोमिन’ ने घर आकर सबसे पहले हथिनी को बेच डाला, तब कोई दूसरा काम किया ।
‘मोमिन’ सजीले जवान और शौक़ीन तबीयत आदमी थे ही, जवानी बड़ी मस्ती के साथ रास-रंग में काटी किन्तु प्रौढ़ावस्था आने पर सारी विषय वासनाओं का परित्याग कर दिया था। इनकी मसत्तवियों और कुछ ग़ज़लों में इनकी जवानी की रंगरेलियों की झलक मिलती है। Momin Khan Momin
‘मोमिन’ ने दिल्ली से निकल कर सिर्फ एक बार याला की । जब टोंक गये तो उसी सिलसिले में रामपुर, सहसवान, बदायूँ, जहाँगीराबाद और सहारनपुर तक का चक्कर लगा आये थे ।
‘मोमिन’ का आत्म-सम्मान अपनी विद्वत्ता के मामले में बहुत बढ़ा-चढ़ा है। अपने समकालीनों ‘जौक़’ और ‘ग़ालिब’ को तो कुछ समझते हो न थे, फ़ारसी के पुराने उस्तादों तक को खातिर में न लाते थे। उनका क़ौल मशहूर था कि शैख सादी की गुलिस्तां में क्या है? “गुफ़्त गुफ़्त, गुफ्ता अंद गुफ़्ता अंद” (अर्थात् ‘कहा है’) कहता चला जाता है। इन लफ़्ज़ों को काट दो तो कुछ भी नहीं रहता ।” तारीखें लिखने में ‘मोमिन’ ने कमाल किया है और अन्य कई काव्य रूप-पहेलियाँ आदि भी लिखे हैं, जिनसे मालूम होता है कि उनकी काव्य-सर्जन शक्ति बड़ी प्रबल थी किन्तु स्थिर न थी ।
उनका विवाह एक सूफी संत के वंश में हुआ था। उनके श्वसुर मीर मुहम्मद नसीर मुहम्मदी ‘रंज’ थे, जो ‘दर्द’ की गद्दी के उत्तराधिकारी मीर कल्लू नवीरा के पुल थे। ‘मोमिन’ के एक पुल और दो पुलियाँ हुई । उनके पुत्त्र का नाम अहमद नसीर खाँ था । Momin Khan Momin
कविता में ‘मोमिन’ ने कुछ दिनों तक शाह ‘नसीर’ का शिष्यत्व ग्रहण किया था किन्तु बाद में स्वयं अपनी कविता में संशोधन करने लगे। स्वयं इनके काव्य-शिष्यों में बड़े प्रसिद्ध कवि और विद्वान् हुए हैं। इनमें से प्रमुख हैं- (1) नवाव मुस्तफ़ा खाँ ‘शेफ्ता’, जो उर्दू कवियों के प्रसिद्ध वृत्तांत ‘गुलशने- बेखार’ के रचयिता और बड़े प्रतिभा सम्पन्न कवि थे, ‘ग़ालिब’ के मित्रों में से भी थे; (2) नवाव शेफ़्ता के छोटे भाई नवाब मुहम्मद अकबर खाँ ‘अकबर’; (3) मीर हुसैन ‘तसकीन’ जो बाद में रामपुर के दरबार में चले गये, बिल्कुल ‘मोमिन’ के रंग में शेर कहते थे; (4) मिर्जा असगर अली खाँ ‘नसीम’ देहलवी, जिनके योग्य शिष्यों ‘तसलीम’ और ‘हसरत’ मोहानी ने ‘मोमिन’ की परम्परा और शैली को उर्दू काव्य में प्रतिष्ठापित करने में बड़ा योगदान किया; (5) मीर ‘तसकीन’ के पुल मीर अब्दुर्रहमान ‘आसी’ जो रामपुर के नवाब क़ल्बे अली खाँ के समय के दरबारी कवि थे (6) ‘क़लक़’ मेरठी और (7) आशुफ्ता अलवरी ।
‘मोमिन’ की मृत्यु अल्पायु में ही हो गयी। 1851 ई० में वे अपने मकान में कुछ परिवर्तन करा रहे थे कि कोठे पर से गिर पड़े और उनका हाथ टूट गया । गिरने के रोज़ ही भविष्यवाणी की कि पाँचवें दिन या पाँचवें महीने या पाँचवें वर्ष मैं मर जाऊँगा। उनकी मृत्यु कोठे से गिरने के पाँचवें महीने में हुई। मरने की ‘तारीख’ खुद कही थी “दस्तो-बाजू बशिकस्त” (हाथ और बांह टूट गयी) । इस तारीख से 1268 के अंक निकलते हैं और उनके मरने का हिजरी हिसाब से यही सन् था। कहा जाता है कि मरने के बाद भी वे लोगों को स्वप्न में दिखाई देते रहे और सच्ची बातें बताते रहे किन्तु इसे श्रद्धा और अंध-विश्वास के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता ।
‘मोमिन’ की रचनाएँ निम्नलिखित हैं- (1) उर्दू कुल्लियात, जिसमें ग़ज़लों का एक दीवान, 6 मसनवियाँ, बहुत-से क़सीदे, तारीखें और विविध कविताएँ हैं, (2) फ़ारसी का दीवान, (3) ‘इंशाए-फ़ारसी’, जिसमें फ़ारसी गद्य-लेखन के नमूने थे (अब अप्राप्य है), (4) ‘जाने-अरूज़’, यह काव्य-शास्ल सम्बन्धी ग्रंथ था जिसे ‘तसलीम’ ले गये थे, लेकिन उनके यहाँ से खो गया, (5) ‘शरहे-सदीदी व नफ़ीसी’- फ़ारसी के उक्त कवियों की रचनाओं की व्याख्या, (6) ‘खवासे-पान’- पान संबंधी पुस्तक तथा (7) कुछ और पत्न तथा लगभग डेढ़ सौ ग़ज़लें जो अलवर के पुस्तकालय में हैं। Momin Khan Momin
संभवतः बहादुरशाह-कालीन दिल्ली में ‘मोमिन’ ही ऐसे कवि थे जिनकी शैली और जिनकी परम्परा अभी तक क़ायम है। इसका कारण स्पष्ट है। ‘मोमिन’ अपने अधिकतर समकालीनों की भाँति बेतरह वर्णन क्षेत्र में बाल की खाल निकालने के पक्षपाती नहीं थे। उनका वर्ण्य विषय अत्यंत सीमित है- भौतिक प्रेम से आगे की बात वे नहीं करते। लेकिन चूंकि उनका हृदय अत्यंत संवेदनशील था और चूंकि परिस्थितियों ने उन्हें प्रेम के क्षेत्ल में खुलकर खेलने का मौक़ा पूरी तरह दिया, अतएव उनकी कविता में प्रभाव बहुत अधिक पैदा हो गया है। वे सूफ़ी आध्यात्मिकता का सहारा लिये बगैर ही ठेठ भौतिक प्रेम की बातें इतने चमत्कारपूर्ण प्रभाव के साथ करते थे कि उनके शेर अभी तक रसज्ञों के कानों में गूंजते हैं और उर्दू साहित्य में मुहावरों और कहावतों का रूप धारण कर चुके हैं। उनके शेरों में तथ्य रूप से कुछ विशेष न होते हुए भी वे दिल में चुभ जाते हैं। Momin Khan Momin
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वर्णन क्षेल में ‘मोमिन’ की रचनाएँ कुछ कमजोर हैं। ‘मोमिन’ को काव्य-शास्त्न में पूर्ण दक्षता प्राप्त थी। यह सही है कि उन्होंने ढेर सी कविताएँ नहीं की हैं किन्तु उनका मस्तिष्क इतना ग्रहणशील था कि जो सफ़ाई अन्य कंवि वर्षों की साधना के बाद ला पाते हैं, वह ‘मोमिन’ ने सहज ही प्राप्त कर ली थी। उनके काव्य में न कहीं शैथिल्य है, न कहीं काव्य-नियमों का उल्लंघन । वे ‘नासिख’ की तरह बाल की खाल नहीं निका- लते थे, न ‘ग़ालिब’ की तरह विचारों और कल्पना की उड़ान में काव्योद्यान के नाजुक फूलों और बेलों को कुचलते चले जाते थे किन्तु वर्णन-सौन्दर्य और भावोत्कर्ष के इन दोनों चरम बिन्दुओं के बीच उन्होंने ऐसा सम्यक् मार्ग निकाला था कि रसज्ञों को अबतक उनकी काव्य-कला की सराहना करनी पड़ती है। उनके विचारों को समझने के लिए दिमाग़ लड़ाना नहीं पड़ता, न उनके वर्णन-सौन्दर्य की बारीकियों को आतशी शीशे की मदद से देखना पड़ता है। अपनी प्रकृति-प्रदत्त प्रतिभा के बल पर उन्होंने एक ऐसी सहजता-पूर्ण वर्णन-शैली निकाली थी, जो प्रभाव से ओत-प्रोत थी और यही ‘मोमिन’ की स्थाई सफलता का रहस्य है। इसी कारण भौतिक प्रेम के प्रभाव- पूर्ण वर्णन में ‘मोमिन’ की शैली अब तक काम आती है। इस शताब्दी के पूर्वार्ध में ‘हसरत’ मोहानी ने इसी शैली को अपना कर ग़ज़लों में अद्वितीय सफलता प्राप्त कर ली है। नयी चेतना के प्रकाशन के माध्यम के रूप में ‘मोमिन’ की शैली इसी समय नहीं, आगे भी कई दशकों तक पथ-प्रदर्शन करती रहेगी । जहाँ तक भाषा का सम्बन्ध है ‘मोमिन’ निस्संदेह अति अरबी फ़ारसी- युक्त भाषा का प्रयोग करते थे। रोजमर्रा की बोल-चाल में साहित्य-सर्जन का मूल्य उस जमाने में नहीं समझा गया था और साहित्य-निर्माताओं का सारा ध्यान सारल्य की अपेक्षा परिष्कार की ओर लगा रहता था। सामंत- वादी युग में, जब कि साहित्य और कला के दरवाजे जनसाधारण के लिए खुले नहीं नहीं होते बल्कि अभिजात वर्गों तक ही यह रुचि सीमित रहती है तो स्वभावतः ध्यान परिष्कार की ओर अधिक होता है। फिर भी उर्दू के विकास में यह बात उल्लेखनीय है कि उस घोर सामंतवादी युग में भाषा की न सही, तो भावों की सरलता तो क़ायम ही रही। इसके कई सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं, जिन पर इस समय बहस करना निरर्थक है। ‘मोमिन’ ने फ़ारसी के शब्द ही नहीं, वाक्य-विन्यास का भी बहुत प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी वे फ़ारसी के प्रसिद्ध मिसरों को, जो कहावतें बन गये हैं या फ़ारसी कहावतों को ही उर्दू में अन्नूदित-सा कर देते हैं। यद्यपि ऐसे शेरों में अनुवाद का उखड़ापन नहीं मालूम होता यह भी नहीं मालूम होता कि कवि ने भाव कहीं और से लिया है (जो उनकी काव्य- प्रतिभा का अकाट्य प्रमाण है) फिर भी उर्दू में शेर पढ़नेवालों को, जब तक वे फ़ारसी के उक्त मुहावरे आदि न जानते हों, यह शेर पूरा मजा नहीं दे पाते बल्कि मामूली और भरती के शेर मालूम होते हैं। तात्पर्य यह है कि उनके शेरों का पूरा आनन्द लेने के लिए फ़ारसी का भी अच्छा ज्ञान आवश्यक है।
फिर भी ‘मोमिन’ स्वाभाविक कवि थे। कभी-कभी काव्य-प्रवाह में वे सीधे और साफ़ शेर इतने प्रभावपूर्ण ढंग से कह देते थे, जिनकी सादगी दिल में खुपी जाती है। उदाहरणार्थ-
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनियां में क्या नहीं होता
‘मोमिन’ (Momin Khan Momin) की मसनवियाँ अपने ढंग की अनोखी हैं। जबान की सफ़ाई और सरलता तो उनमें कूट-कूट कर भरी है किन्तु विषय में उच्चता जैसी कोई चीज नहीं है जिसके बल पर मसनवी मसनवी होती है। इनकी तुलना ‘मीर’, ‘हसन’ या ‘शौक़’ की भी मसनवियों से करना बेकार है। विषय निरं- तर एक ही रहता है- विरह-काल में प्रिय-मिलन के क्षणों को याद करके रोना। यह सही है कि अनुभूति की तीव्रता और वर्णन के प्रभावशाली होनेने इन मसनवियों की लाज बचा ली है। ‘मोमिन’ अपने प्रिय-मिलन के क्षणों का वर्णन करने में इतने डूब जाते हैं कि अश्लीलता की सीमा के अंदर भी जा पड़ते हैं। एक मसनवी में तो उन्होंने रतिक्रिया का भी सजीव और विस्तृत वर्णन कर डाला है। लैंगिक नैतिकता की दृष्टि से इन मसनवियों पर जरूर आपत्ति की जा सकती है लेकिन शुद्ध कलात्मक दृष्टि से देखने पर ऐसे वर्णन भी अत्यंत उत्कृष्ट दिखाई देते हैं और उनमें खजुराहों के मंदिरों की कला के दर्शन होते हैं।
‘मोमिन’ ने क़सीदे भी लिखे हैं किन्तु वे विशेष उल्लेखनीय नहीं हैं। सांसारिक व्यक्तियों की प्रशंसा में जैसा कि पहले कहा जा चुका है-उन्होंने दो ही क़सीदे लिखे हैं, शेष धार्मिक महापुरुषों की प्रशंसा में हैं। उनके क़सीदों में काव्य-नियमों का पूरा पालन है किन्तु उनमें प्राणों की कमी मालूम होती है और वे ‘सौदा’ ही नहीं ‘जौक’ के क़सीदों से भी काफ़ी नीचे हैं।
(ये लेख फ़िराक़ गोरखपुरी की किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य से लिया गया)
____________
मोमिन की कुछ ग़ज़लें… Momin Khan Momin
मोमिन की ग़ज़ल- “तुम मिरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता”
****
वो जो हममें तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही या’नी वा’दा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझपे थे बेशतर वो करम कि था मिरे हाल पर
मुझे सब है याद ज़रा ज़रा तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो
कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तुगू
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो
हुए इत्तिफ़ाक़ से गर बहम तो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अक़रिबा तुम्हें याद हो कि न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई कि तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो कि न याद हो
कभी हममें तुम में भी चाह थी कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आश्ना तुम्हें याद हो कि न याद हो
सुनो ज़िक्र है कई साल का कि किया इक आप ने वा’दा था
सो निबाहने का तो ज़िक्र क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो
कहा मैं ने बात वो कोठे की मिरे दिल से साफ़ उतर गई
तो कहा कि जाने मिरी बला तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो बिगड़ना वस्ल की रात का वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हर आन अदा तुम्हें याद हो कि न याद हो
जिसे आप गिनते थे आश्ना जिसे आप कहते थे बा-वफ़ा
मैं वही हूँ ‘मोमिन’-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो कि न याद हो
****
असर उसको ज़रा नहीं होता
रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता
बेवफ़ा कहने की शिकायत है
तो भी वादा-वफ़ा नहीं होता
ज़िक्र-ए-अग़्यार से हुआ मा’लूम
हर्फ़-ए-नासेह बुरा नहीं होता
किसको है ज़ौक़-ए-तल्ख़-कामी लेक
जंग बिन कुछ मज़ा नहीं होता
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता
उसने क्या जाने क्या किया ले कर
दिल किसी काम का नहीं होता
इम्तिहाँ कीजिए मिरा जब तक
शौक़ ज़ोर-आज़मा नहीं होता
एक दुश्मन कि चर्ख़ है न रहे
तुझसे ये ऐ दुआ नहीं होता
आह तूल-ए-अमल है रोज़-फ़ुज़ूँ
गरचे इक मुद्दआ नहीं होता
तुम मिरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
हाल-ए-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता
रहम कर ख़स्म-ए-जान-ए-ग़ैर न हो
सब का दिल एक सा नहीं होता
दामन उसका जो है दराज़ तो हो
दस्त-ए-आशिक़ रसा नहीं होता
चारा-ए-दिल सिवाए सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता
क्यूँ सुने अर्ज़-ए-मुज़्तर-ए-‘मोमिन’
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता
****
क़हर है मौत है क़ज़ा है इश्क़
सच तो यूँ है बुरी बला है इश्क़
असर-ए-ग़म ज़रा बता देना
वो बहुत पूछते हैं क्या है इश्क़
आफ़त-ए-जाँ है कोई पर्दा-नशीं
कि मिरे दिल में आ छुपा है इश्क़
वस्ल में एहतिमाल-ए-शादी-ए-मर्ग
चारागर दर्द-ए-बे-दवा है इश्क़
हमको तरजीह तुम पे है यानी
दिलरुबा हुस्न ओ जाँ-रुबा है इश्क़
देखिए किस जगह डुबो देगा
मेरी कश्ती का नाख़ुदा है इश्क़
अब तो दिल इश्क़ का मज़ा चक्खा
हम न कहते थे क्यूँ बुरा है इश्क़
आप मुझसे निबाहेंगे सच है
बा-वफ़ा हुस्न ओ बेवफ़ा है इश्क़
मैं वो मजनून-ए-वहशत-आरा हूँ
नाम से मेरे भागता है इश्क़
क़ैस ओ फ़रहाद ओ वामिक़ ओ ‘मोमिन’
मर गए सब ही क्या वबा है इश्क़
****
‘मोमिन’ ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़
दोज़ख़ में डाल ख़ुल्द को कू-ए-बुताँ न छोड़
आशिक़ तो जानते हैं वो ऐ दिल यही सही
हर-चंद बे-असर है पर आह ओ फ़ुग़ाँ न छोड़
उस तबा-ए-नाज़नीं को कहाँ ताब-ए-इंफ़िआल
जासूस मेरे वास्ते ऐ बद-गुमाँ न छोड़
नाचार देंगे और किसी ख़ूब-रू को दिल
अच्छा तू अपनी ख़ू-ए-बद ऐ बद-ज़बाँ न छोड़
ज़ख़्मी किया उदू को तो मरना मुहाल है
क़ुर्बान जाऊँ तेरे मुझे नीम-जाँ न छोड़
कुछ कुछ दुरुस्त ज़िद से तिरी हो चले हैं वो
यक-चंद और कज-रवी ऐ आसमाँ न छोड़
जिस कूचे में गुज़ार सबा का न हो सके
ऐ अंदलीब उसके लिए गुलसिताँ न छोड़
गर फिर भी अश्क आएँ तो जानूँ कि इश्क़ है
हुक़्क़े का मुँह से ग़ैर की जानिब धुआँ न छोड़
होता है इस जहीम में हासिल विसाल-ए-जौर
‘मोमिन’ अजब बहिश्त है दैर-ए-मुग़ाँ न छोड़
Momin Khan Momin