मुसल्लस
जब कोई कविता तीन-तीन मिसरों के बंदों में बँटी होती है, तो उसे मुसल्लस कहा जाता है। इसमें शेरों के रदीफ़-काफ़िए की बनावट के आधार पर कई किस्में होती हैं। कभी तीनों मिसरे एक जैसे रदीफ़-काफ़िए में होते हैं, तो कभी पहले दो एक जैसे होते हैं और तीसरा अलग। लेकिन एक बात तय रहती है कि हर बंद का तीसरा मिसरा बाकी सारे बंदों में एक ही रदीफ़-काफ़िए में बंधा होता है।
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मुख़म्मस
इसमें हर बंद पाँच मिसरों का होता है। पहले चार मिसरे एक रदीफ़-काफ़िए में बंधे होते हैं और पाँचवां मिसरा अलग। लेकिन हर बंद का पाँचवां मिसरा सबमें एक ही रदीफ़-काफ़िए वाला होता है। कई बार हर बंद के अंत में एक ही मिसरा बार-बार दोहराया जाता है।
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मुसद्दस
जैसा नाम से समझ आता है, मुसद्दस में हर बंद में छह मिसरे होते हैं। इनमें पहले चार मिसरे एक जैसे रदीफ़-काफ़िए में होते हैं और बाद के दो मिसरे अलग लेकिन आपस में एक जैसे। हर बंद अपने आप में पूरा होता है, और किसी बंद का मिसरा दूसरे बंद से सीधा नहीं जुड़ता।
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मुसम्मन
मुसम्मन यानी आठ-आठ मिसरों की बंद-रचना। हर बंद के पहले छह मिसरे एक ही रदीफ़-काफ़िए में होते हैं और आख़िरी दो मिसरे अलग काफ़िए में, पर आपस में मेल खाते हैं। कई बार पहला बंद जो होता है, उसके आख़िरी दो मिसरे बाक़ी सभी बंदों के अंत में रिपीट किए जाते हैं।
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तरकीबबंद
इसमें बंदों की लंबाई (मिसरों की संख्या) तय नहीं होती, लेकिन दो बातें ज़रूरी होती हैं—पहली, कि हर बंद में कम से कम आठ मिसरे हों और वह संख्या सम (even) हो; दूसरी, सभी बंदों में बराबर मिसरे होने चाहिएँ। हर बंद के अंदर कुछ मिसरे (अमूमन सम संख्या वाले) एक ही रदीफ़-काफ़िए में होते हैं और बाकी अलग। बंद के आख़िरी दो मिसरे आमतौर पर एक ही रदीफ़-काफ़िए में बंधे होते हैं, मगर कभी-कभी पूरे नज़्म में यह दोहराव मिलता है।
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तरजीबबंद
यह भी तरकीबबंद की तरह ही होता है, बस फ़र्क इतना है कि पहले बंद के अंतिम दो मिसरे ही हर बंद के अंत में रिपीट होते रहते हैं। यानि एक तरह से रिफ़्रेन या टेक की तरह।
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मुस्तज़ाद
इसका मतलब होता है—कुछ बढ़ाया हुआ। यानी शेर के बाद एक टुकड़ा जोड़ा जाता है, जो बहर में फिट बैठता है और रदीफ़-काफ़िए की पाबंदी में भी होता है। अगर यह टुकड़ा किसी स्वतंत्र मिसरे से जोड़ा जाए, तो वह पाबंद न होने पर भी शिल्प में व्यवस्थित रहता है। वहीं अगर वह टुकड़ा किसी पाबंद मिसरे से जुड़ा हो, तो वही रदीफ़-काफ़िए उसमें भी दोहराया जाता है।
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तारीख़
अरबी में हर अक्षर का एक अंकीय मान होता है। शायर किसी घटना—जैसे किसी का जन्म या मृत्यु—के संदर्भ में एक ऐसा मिसरा रचते हैं, जिसके सारे अल्फ़ाज़ का योग उस वर्ष की संख्या बनाता है। इसे ही तारीख़ कहना या तारीख़ निकालना कहते हैं।
क्या होती है ग़ज़ल और क्या है नज़्म?
शायरी सीखें: क्या होती है ज़मीन, रदीफ़, क़ाफ़िया….